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बाबू जी धीरे चलना... वन नेशन, वन इलेक्शन की राह में...

टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Mon, 09 Jul 2018 04:29 PM IST
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Babu ji walking slowly... in the path of one nation, one election...
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इन दिनों देश में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर राष्ट्रीय बहस जारी है। भारत ही नहीं, दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनाव का निर्णायक महत्व है। भारत ने 'एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य' के सिद्धांत को स्वीकार किया है, इसका मतलब है कि भारत के हर मतदाता को चुनाव में एक वोट देने का अधिकार है और हर मतदाता के वोट का मूल्य समान है। ज्यादातर भारतीय नागरिक को कम से कम दो स्तरों पर वोट देने का अधिकार है। भारतीय संविधान ने संघीय ढांचे का प्रावधान किया है, उसके तहत मतदाता लोकसभा और विधानसभा के लिए मतदान कर सकता है। 

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ भारतीय संविधान और लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण बहस है। जिसके बहुत गहरे असर हो सकते हैं इसलिए यह बहुत जरूरी है कि देश का हर सचेत नागरिक इस बहस में शामिल हो। इस बहस में हिस्सा लेने से पहले आवश्यक है कि इस प्रस्ताव के पक्ष और विपक्ष के तर्कों को जान लिया जाए, ताकि किसी सुसंगत निष्कर्ष तक पहुंचना संभव हो।


बिना संविधान में बदलाव के यह मुमकिन नहीं है। मिसाल के तौर पर यूपी में पिछला विधानसभा चुनाव 2017 में हुआ है. क्या वहां की सरकार और राजनीतिक दल 2018 या 2019 में लोकसभा चुनाव के साथ यूपी का विधानसभा चुनाव कराने को राजी होंगे? क्या केंद्र सरकार ऐसी किसी भी सरकार को भंग कर सकती है, जिसका कार्यकाल पूरा नहीं हुआ है? ऐसा वह किस कानूनी प्रावधान के तहत करेगी? एक साथ देश में सारे चुनाव करा लेने के प्रस्ताव को इन कानूनी और संवैधानिक सवालों से टकराना होगा।


एक साथ चुनाव कराने की स्थिति में काफी अधिक संख्या में ईवीएम तथा वीवीपैट, मानव संसाधन और बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की ज़रूरत पड़ेगी, अतिरिक्त आर्थिक भार भी पड़ेगा। इसके अलावा और भी कई तरह की स्थानीय तथा तात्कालिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। एक साथ चुनाव कराना अवधारणा की दृष्टि से ठीक हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र की मूल भावना के मद्देनज़र यह अव्यावहारिक है। संसद या राज्य विधानसभा के लिये पाँच वर्ष की अवधि सुनिश्चित कर पाना वैधानिक रूप से असंभव है।

केंद्र और राज्यों में एक साथ चुनाव कराने के विरोध में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि भारतीय मतदाता इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि इनमें अंतर कर सके। इसके समर्थन में दिये गए आँकड़ों से पता चलता है कि 1999 से 2014 तक 16 बार ऐसा हुआ जब लोकसभा चुनावों के छह महीने के भीतर कुछ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हुए और 77% मामलों में विजय एक ही पार्टी को मिली। लेकिन कुछ मामले ऐसे भी सामने आए जहाँ ऐसा नहीं हुआ।

फिलहाल, एक राष्ट्र एक चुनाव के बारे में और बहस और चर्चा की जरूरत है। इस मामले में जिस एक चीज से परहेज किया जाना चाहिए, वह है इसे हड़बड़ी में लागू करना। इस बदलाव का भारतीय लोकतंत्र पर कई स्तरों पर प्रभाव पड़ेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्र को विश्वास में लिए बगैर मतदान की बुनियादी प्रक्रियाओं में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा। बाबू जी हड़बड़ी में न करना कोई गड़बड़ी। 

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