Home Panchayat Classic Satire On Final Ritual By Mohan Lal Maurya

अंतिम अनुष्ठान पर क्लासिक व्यंग्य: मृत्युभोज की लपटें

मोहनलाल मौर्या Updated Sun, 19 Aug 2018 02:32 PM IST
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Final Ritual
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विस्तार

मृत्युभोज भारी बोझ है। लंबे समय तक उठाए रखना मूर्खता है। इसको तो  तेरहवीं पर ही उतार देना चाहिए। जो तेरहवीं पर नहीं उतार पाते हैं, वे इसके  बोझ तले दबकर मर भी जाते हैं। मुर्दे की राख ठंडी भी नहीं हुई थी। मृत्युभोज की लपटें उठने लगीं। उठती लपटों को बुझाने के बजाए लोग उन्हें सुलगाने लगे। लपटें श्मशान से घर तक आ गईं और परिजनों को चपेट में लेने लगीं। मृतक की पत्नी बेसुध थी। बच्चे  विलाप में डूबे हुए थे। मृत्युभोज की लपटें छूते ही तिलमिला उठे। समाज बोल  उठा,‘यह लपटें तो सहनी पड़ेंगी। इनसे बचना मुश्किल है। हर हाल में सहना  होगा। बहरहाल सह लिया, तो हर तरह से बच जाओगे।’ सांत्वना देने आए  नाते-रिश्तेदारों ने भी समाज के वक्तव्य को विहित बताया। यहां अस्थियों को  कब तक रखेंगे? इन्हें गंगा में विसर्जित करना होगा। नहीं तो मृतक भूत-प्रेत  बन जाएगा। भूत-प्रेत बन गया, तो तुम्हें ही हैरान करेगा। सबकी सुनकर मृतक की पत्नी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछती हुई बोली,‘सहन कैसे करें? सहने के लिए पैसा चाहिए। पैसा तो मृतक की बीमारी में लग गया। 

एकमात्र पचास हजार की एफडी बची है। एफडी तुड़वाकर सहन कर लिया, तो बच्चों  का भविष्य चौपट हो जाएगा। जब बच्चे काबिल होंगे, तब सहन कर लेंगे। बहरहाल  तो मृत्युभोज की उठती लपटों पर पानी डालिए। यही हमारे प्रति आपकी सांत्वना  होगी। उसकी संवेदना पर किसी ने भी सांत्वना की बाल्टी से पानी नहीं डाला।  मरने वाला मरकर भी नहीं मरा था। बस उसका शरीर पंचतत्व में विलीन हुआ था। मर गया होता, तो मृत्युभोज की लपटें नहीं उठतीं। पता नहीं कब और किसकी मृत्यु  पर यह लपटें उठी थीं, जो आज तक नहीं बुझ पाई हैं। लपटों को काबू में करने  के लिए परिजन संवेदना के पानी से भरी मटकियां उड़ेलने लगे। फिर भी  मृत्युभोज की लपटें बुझी नहीं, बल्कि ज्यादा दहकने लगीं। बचना मुश्किल था।  अपने आगोश में ले, उससे पहले ही एफडी व कर्ज की फायर ब्रिगेड से नियंत्रित किया। यह देखकर खामोश अस्थियां भी हंसने लगीं। बोलीं, ‘यह कैसी रवायत है?

हमें  गंगा में विसर्जित करने के लिए इस तरह तामझाम। कुटुंब सहित गंगा स्नान।  मृत्युभोज के नाम पर सामूहिक भोज, जिसमें एक से बढ़कर एक पकवान। मेहमानों  को स्मृति भेंट। जानवर भी अपने साथी के मरने पर वियोग करते हैं और यहां  मनुष्य अपने सगे-संबंधी के मरने पर भोज करने पर तुले हैं। खुशी के मौके पर तो मिठाइयां चलती हैं, पर मरने पर शर्मनाक है। यह तो पीड़ादायक कुरीति  है।’ पर अस्थियों की सुनने वाला कौन था? वे तो मटकी के अंदर थीं। ऊपर से  मुंह सफेद कपड़े से बंधा हुआ था, तो बाहर आवाज ही नहीं पहुंची होगी। जिस  दिन मटकी के मुंह से सफेद कपड़ा हट गया। खुद अस्थियां ही मृत्युभोज पर  प्रतिबंध लगा देंगी। अंततः अस्थियां गंगा में विसर्जित की गईं और तेरहवीं  पर मृत्युभोज होकर ही रहा। 

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