दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं। उनमें एक प्रजाति ऐसी होती है जिसे दूसरे का काम खराब और अपना वही काम अच्छा लगता है। हम सभी में इस प्रजाति का थोड़ा-बहुत अंश होता ही है। किसी-किसी में अनुपात बिगड़ जाने से ज्यादा होता है।
हमारे अतुल्य भारत में जहां परिधान और वेशभूषा आपका स्टेटस सिंबल बनते हैं, उपभोक्तावाद की संस्कृति ही लाखों लोगों का पेट पाल रही है, वहां कपड़े का साइज़ ही नहीं वरन कपड़े की प्रजाति भी आपका चारित्रिक विश्लेषण करते हैं। छोटी स्कर्ट और शॉर्ट्स तो बाद में आते हैं, ऐसे लोग भी इस सरज़मीं पर थोक के भाव में मौजूद हैं जो आपको सूट या साड़ी में न देखें तो खुद ही मान लेते हैं कि आप अच्छी लड़की नहीं हैं। उसके बाद आप चाहें कितनी भी मृदुभाषी हों, कितनी भी शालीन और सभ्य बनती रहें, आपकी छवि का कुछ नहीं हो सकता।
ऐसे लोग अगर आपकी बातों और हाव-भाव से बहुत प्रसन्न हुए और किसी छोर पर जाकर ये सोच पाए कि नहीं, आप अच्छी लड़की हैं तो आपको मुफ्त की सलाह परोसते हुए ही जाएंगे कि - देखो, तुम अच्छी लगी। अच्छी लडकी हो, सभ्य घर की लगती हो इसलिए अपना जानकर समझा रहे हैं। ये सब कपड़े मत पहना करो। अच्छा नहीं लगता। लोग खराब समझते हैं। 'लोग' जैसे शब्द का इस्तेमाल कर अपनी बात किसी भी भीड़ पर थोप दी जाती है। कहने का तरीका ऐसा मानो इन्होंने किसी अनुसंधान के तहत 5000 लोगों पर कोई सर्वे किया गया हो।
[caption id="attachment_32590" align="alignnone" width="670"] Image source: The Indian Express[/caption]ख़ैर, आपको यह जानकर अपार प्रसन्नता होगी (पतंजलि समूह ऐसी प्रसन्नता की अपेक्षा करता है) कि स्वदेशी सामग्री की सूची में एक और नाम जुड़ गया है। शुद्ध आटा, नमक, हल्दी, बेसन, साबुन, एलोवेरा जेल, तेल और शैम्पू के बाद योग गुरू बाबा रामदेव आपके लिए ला रहे हैं भारतीय संस्करण की स्वदेशी जींस। बाबा रामदेव अपने व्यापार को (क्षमा करें समाज सेवा को) कपड़ों की दुनिया में भी ले जा रहे हैं। उनके कारखाने और गोदाम से होकर जो कपड़े निकलेंगे वो स्वदेशी ही होंगे। अभी बाबा को लग रहा है कि सलवार-सूट से अधिक जींस की मांग है तो जींस से शुरुआत करेंगे। ये सारे कपड़े स्वदेशी होंगे क्योंकि बाबा रामदेव कोई गारमेंट्स की दुकान नहीं चला रहे हैं, वो लोगों को उनके अनुरूप वस्त्र दे रहे हैं जो 'परिधान' के नाम से जाने जाएंगे। ये वेस्टर्न कपड़ों का 'Indianised' (भारतीय) संस्करण होगा। नागपुर में एक और बड़ा कारखाना प्लांट किया जा रहा है। आपको पता होगा कि सन् 2011-12 से अब तक इस कंपनी को 10 गुना से अधिक मुनाफ़ा हुआ है जो इमामी और डाबर सरीखे किसी भी भारतीय कंपनी से अधिक है।
तो क्या अब जींस या डेनिम भारतीय वस्त्र होंगे? अब किसी संस्कृति और सभ्यता का हनन नहीं होगा? डेनिम की मांग है तो रामदेव डेनिम ला रहे हैं। स्कर्ट और बिकिनी की बढ़ जाएगी तो क्या वो नहीं लाएंगे? देखिए जनाब, सेवाभाव अपनी जगह है और मुनाफ़ा अपनी जगह। बाकी संस्कृति और सभ्यता की परिभाषा समयानुसार बदलती रहेगी। अब आदिकाल का उदाहरण भी दिया जाएगा जब लोग पत्ते या जानवरों की खाल पहनकर घूमते थे। आपको बताया जाएगा कि हमारी सभ्यता वहीं से आती है।
उन स्थलों का क्या होगा जहां जींस/डेनिम 'वर्जित' हैं? वहां की सभ्यता को हाशिए पर रखकर हम आगे बढ़ सकेंगे? उन मंदिरों का क्या होगा जहां बोर्ड लगे होते हैं कि जूते-चप्पल उतारकर आएं और बिना बोर्ड के आदमी लगे होते हैं ये कहने के लिए कि यहां जींस पहनकर आने की अनुमति नहीं है। अब जब जींस भी उनके गुरू के दिशा-निर्देश में बन रही है तो क्या पतंजलि-जींस पहनकर वहां प्रवेश कर उन मंदिरों का और उन साधुओं का कौमार्य खंडित कर दिया जाएगा? गोरखपुर की उस गीता वाटिका का क्या होगा जहां डेनिम को निहायती असभ्य कपड़ा माना जाता है। योगी आदित्यनाथ के उन महाविद्यालयों का क्या होगा जहां लड़कियां जींस पहनकर चली जाएं तो रोक ली जाती हैं और शिक्षक उन्हें बकायदे समझाते हैं कि ये सब यहां मत पहना करो। क्या अब इन 'बेढंगे कपड़ों' में भारत 'सभ्य' बनेगा? उन महानुभावों के विचार नहीं आए जो कपड़ों की साइज़ से ही चरित्र की मापतोल करते हैं। अभी शोध-कार्य में व्यस्त होंगे। इस अवसर पर उन सामाजिक शिक्षकों का स्मरण हो आता है जो चरित्र-निर्माण पर दिन-रात बल देते हैं, जिनके मुताबिक चरित्र-निर्माण और वस्त्र का बहुत ही गहरा संबंध है।
साहब, आप धीरे-धीरे वही कर रहे हैं जो हम पहले से करते आ रहे हैं। फ़र्क इतना है कि आप इसपर 'भारतीय संस्करण' का ठप्पा लगाकर बेच रहे हैं।
मुझे पतंजलि से कोई आपत्ति नहीं। देशी उद्योग है, हम सभी चाहेंगे कि वो खूब तरक्की करे। पर 'स्वदेशी' 'भारतीय' 'शुद्ध' और 'प्राकृतिक' जैसे शब्दों को संवेदनशीलता के धरातल पर अधिक से अधिक बेचकर यह काम करना ठीक नहीं है। पतंजलि के अलावा भी बहुत-सी भारतीय कम्पनियां हैं जो यहां पहले से जी रही हैं, फल-फूल रही हैं और 'स्वदेश' जैसे शब्द का अत्यधिक उपयोग किए बिना अपना काम चला रही हैं।
अब आप ने जींस बनानी शुरू की तो जींस सभ्य परिधान बन गई। अभी तक हम इसे पहनकर भारतवर्ष के उस शुद्ध रुप के दर्शन करने में अक्षम थे। शब्दों को अपनी परिभाषा देना बंद करें, और अपनी परिभाषाओं को सभ्यता का नाम न दें। बहुत सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी।