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व्यंग्यसम्राट हरिशकंर परसाई ने ‘दहेज और विवाह-पूर्व आत्महत्या’ शीर्षक का एक व्यंग्य लिखा जोकि उनकी किताब ‘ऐसा भी सोचा जाता है’ में छपा था। किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन द्वारा सन् 1985 में किया गया था।
इस देश के लोग दहेज के कारण बहू की हत्या या आत्महत्या की घटनाओं के अभ्यस्त हो चले हैं। अखबारों में रोज ऐसी घटनाओं के समाचार में पढ़ने से जन संवेदना भोथरी हो जाती है। पिछले सालों में पुलिस में रिपोर्ट होने लगी है, अखबारों में रिपोर्ट भेजी जाने लगी है, लड़की के माता पिता कानूनी कार्यवाही करने लगे हैं। महिला थाने भी खुलते जा रहे हैं। पहले ऐसी घटना को बर्दाश्त कर लिया जाता था। अब बर्दाश्त नहीं किया जाता। दूसरे कारणों से भी महिलाएं आत्महत्या करती हैं- सास-जिठानी के तंग करने के कारण, गृह-कलह के कारण, पति की नशे की आदत के कारण। ये घटनाएं भी दहेज के खाते में जाने लगी हैं। जैसे पंजाब के बारे में खबरें पढ़ने के लोग अभ्यस्थ हो गए हैं। अखबार में खबर पढ़ते हैं और कहते हैं- अच्छा आज सात मारे गए और आगे की खबर पर फिसल जाते हैं। ज्यादा चौंकते हैं बड़े आदमी की या बड़े आतंकवादी की हत्या पर। मेजर जनरल कुमार की हत्या की खबर पढ़कर मेरे पास बैठे दो मित्र बड़ी देर चिन्ता से बात करते रहे। एक ने कहा- पंजाब में इस समस्या का हल आखिर कब होगा और कैसे होगा ? दूसरे ने कहा- पंजाब के राज्यपाल के सलाहकार रिबेरो ने कहा है कि यह लंबे समय तक चलेगा। आतंकवादी हत्याएं करते जाएंगे और पुलिस उन्हें मारती और पकड़ती जाएगी। आतंकवादी हिंसा तब बन्द करेंगे जब उन्हें यह समझ आ जाएगा कि खालिस्तान नहीं मिलेगा। यह अलगाववाद की हिंसा है, विचारधारा से प्रेरित नहीं है। यह आयरिश रिपब्लिकन आर्मी की हिंसा सरीखी है । आयरिश आतंकवादी अल्सटर क्षेत्र को भी आयरलैंड में मिलाना चाहते हैं । इन्होंने भारत के अाखिरी वायसराय लॉर्ड माउंट बेटन की हत्या की थी । पंजाब में सामान्य अपराध भी आतंकवादियों के खाते में डाल दिए जाते हैं।
दहेज पीड़ा के बारे में बताते हुए परसाई जी कहते हैं
वधू हत्या या आत्महत्या तथा आतंकवादियों द्वारा हत्या के समाचार पढ़ने के अभ्यस्थ लोग हो जरुर गए हैं, पर संवेदनहीन नहीं हुए हैं । एक खरोंच पड़ ही जाती है।
पिछले तीन-चार महीनों में हुई दो घटनाओं ने मेरी संवेदना को बहुत आन्दोलित किया। पहली घटना कानपुर की है । वहां एक साहू परिवार की दो विवाह योग्य लड़कियों ने इसलिए आत्महत्या कर ली कि उनके विवाह के लिए दहेज जुटाने की चिंता में अपने माता पिता की दयनीय हालत उनसे देखी नहीं जाती थी। वे संभवत: अपने को परिवार का संकट मानने लगी थीं। वे अपराध बोध से बहुत पीड़ित हो गयी होंगी। इस पीड़ा से अपने को और दहेज की चिंता से माता-पिता को मुक्त करने के लिए उन्होंने सलाह करके आत्महत्या कर ली । दूसरी घटना दक्षिण भारत की है। दहेज देश व्यापी है- उत्तर, दक्षिण पूरब, पश्चिम। पालघाट के कॉन्सटेबल की चार लड़कियों ने एक साथ आत्महत्या कर ली। वे अपनी सबसे बड़ी बहन की शादी के समय माता-पिता की विपत्ति देख चुकी थीं। वे जानती थीं कि हममें से हर एक की शादी एक विपदा होगी। कॉन्सटेबल पिता चार लड़कियों के लिए पति खरीदने के लिए पैसा कहां से लाएगा। हमारी शादी भी शायद नहीं हो। कॉन्सटेबल इन चारों को इतनी शिक्षा भी नहीं दिला पाया होगा कि वो नौकरी करके जीवन काट लें। इस भविष्य की भयावहता से आतंकित होकर चरम निराशा की मन:स्थिति में चारों ने आत्महत्या कर ली।
ये दो घटनाएं ऐसी भयावह और इतनी क्रूर सांकेतिक हैं कि हर विचारवान औऱ संवेदनशील व्यक्ति को झटका लगेगा और वह सोचने के लिए बाध्य होगा। ये घटनाएं नए प्रकार की हैं। लड़कियों को उनके विवाह को लेकर अपने माता-पिता की परेशानी बर्दाश्त नहीं होती। ये पूरे देश में दो ही घटनाएं हैं। मगर यह मानसिकता लड़कियों की बनती गई कि वे आत्महत्या को समस्या का हल मानने लगीं तो क्या होगा ? घर-घर में विवाह योग्य लड़कियां हैं और उनके माता-पिता परेशान हैं। ऐसी घटनाओं की जानकारी से माता-पिता को भी डर लगा रहेगा कि लड़की कुछ कर न बैठे।
लड़की के जन्म पर उनका कहना है कि
इस देश की हालत अब यह हो गई है कि घर में लड़की का जन्म एक अपराध, एक पाप हो गया है। एक आदमी मुझे बता रहा था- मेरी शादी को बारह साल हो गए। पिछले हफ्ते मेरी पत्नी ने लड़की को जन्म दिया। हम दोनों खुश थे कि संतान हुई है, पर अमुक सज्जन घर आए तो इस तरह जैसे मातमपुर्सी करने आए हों। उदास होकर बोले- भैया, भाग्य में जो होता है, वही होता है। उन्होंने मुझे बताया कि मैं अपने एक मित्र के घर पर बैठा था। पति-पत्नी दोनों शिक्षित हैं। लड़की ने आकर पिता से शिकायत की- बाबूजी, भैया हमें मारता है। मेरे शिक्षित मित्र ने ल़ड़की से कहा- तुम लड़की हो और भैया लड़का है। भैया तो तुम्हें मारेगा ही।
आत्महत्या की दोनों खबरें अंधे की भी आंखें खोल देंगीं। यह समस्या कोई नई नहीं है, न मैं पहली बार इसे उठा रहा हूं। पर अभी तक हम विवाह के बाद कम दहेज या लगातार मांग के कारण होने वाली दुर्घटनाएं जानते थे। यह नई बात है कि लड़कियां विवाह के पहले ही आत्महत्या करने लगीं।
समाज में नारी की स्थिति के बारे में समाज के नेता, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री सोचते हैं। कुछ का कहना है कि स्त्री को आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर हो जाना चाहिए। मगर परिवारों में कम और ज्यादा अर्थ से ही संबंध बनते हैं। दो बहुएं नौकरी करके कमाती हैं- इतना सा पैसा देती है । इसमें तेरा पेट भी तो नहीं भर सकता ।
विचारकों के मत बताते हुए उन्होंने कहा कि
कुछ विचारकों का मत है कि लड़की पढ़-लिखकर नौकरी करे। बिना दहेज शादी होती हो तो कर ले। वरना अविवाहित और स्वतंत्र रहे। ऊपर से यह स्थिति लुभावनी लगती है। मगर दूसरी समस्याएं हैं। मानसिक और दैहिक जरूरतें होती हैं। सबसे बड़ी यातना अकेलेपन की होती है। दूसरे दैहिक, भावात्मक आवश्यकताएं होती हैं। इनकी पूर्ति कैसे होगी ? या तो समाज स्वतंत्र यौन संबंध की इजाजत दे या स्त्री केवल भावात्मक संबंधों से संतुष्ट रहे। यदि अकेली रहती है, तो असुरक्षित रहती है। 'वर्किंग वीमेन्स हॉस्टल' हैं पर इनमें भी मामले बहुत गड़बड़ होते हैं। अविवाहित स्त्री कितनी भी पवित्र रहे, वह लांक्षित होती ही है। लांक्षनों की पीड़ा विकट होती है। उसे घटिया किस्म की स्त्री माना जाता है। फिर बीमारी और बुढ़ापे में कौन सहारा होगा। इस तरह का स्वतंत्र जीवन आखिर किस वर्ग की स्त्रियां निभा सकती हैं । उच्च वर्ग संपन्न होता है। वहां न विवाह समस्या है और ना ही अविवाहित रहना। वह मध्यम वर्ग की स्त्री है, जिससे यह उम्मीद की जाती है। मगर मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा असुरक्षित है और दकियानूसी परम्पराओं से जकड़ा हुआ है ।
वर्नार्ड शा जैसे अतिवादी चिंतक समस्या का हल यह देते हैं- जब तक नारी अपने नारीत्व को नहीं त्यागती, जब तक वह अपने पति, बच्चों और समाज के प्रति कर्तव्यों को तिलांजलि नहीं देती, कानून की भी अवहेलना नहीं करती, किसी के प्रति नहीं केवल अपने प्रति कर्तव्य का बोध नहीं करती - वह मुक्त नहीं हो सकती। यह कैसी मुक्ति है ! यह तो नारीत्व से ही नहीं, मनुष्यता से भी मुक्ति है। बर्नार्ड शॉ बौद्धिक पर कम संवेदना के आदमी थे। वे नारी-मुक्ति का नितांत संवेदनहीन, अमानवी और परम स्वार्थी सूत्र देते हैं। पर खुद उनका क्या हाल था। एनीबेसेंट अपने पति को तलाक देकर बर्नार्ड शॉ से विवाह करने को तैयार थीं, पर बर्मार्ड शॉ ने जो शर्तें रखीं, दकियानूस भारतीय परिवार की कुल-वधू उनसे अधिक मुक्त थी। इसके पहले की घटना मजदूर हड़ताल थी। बर्नार्ड शॉ ने बहुत गरम भाषण केबियन सोसाइटी में दिया और तय हुआ कि केबियन समाजवादी मजदूरों के जुलूस में जाएंगे ।
शॉ और एनीबेसेंट साथ-साथ थे। पुलिस ने डंडा चलाया। एनीबेसेंट को डंडा लगा। बगल में देखा- बर्नार्ड शॉ गायब थे। शाम को उसने बर्नार्ड शॉ से कहा कि तुम भाग आए। तुम कायर हो। बर्नार्ड शॉ का जवाब चकित कर देने वाला है- बेवकूफ होने से कायर होना अच्छा है ।
दहेज के बिना प्रेम विवाह होते हैं। साथ पढ़ने वाले कुछ लड़के- लड़की विवाह भी कर लेते हैं । इनमें मां बाप का दिल टूटता है क्योंकि दहेज की रकम जाती है। पर नया बनाने के लिए पुराने को तोड़ना होगा और इस टूटन से एक पीढ़ी को दर्द होगा। इन प्रेम विवाहों में कुछ असफल भी होते हैं। पर परम्परागत विवाहों में ज्यादा प्रतिशत असफल होते हैं मगर घुटते हुए निभाए जाते हैं। उम्मीद थी कि नई पीढ़ी दहेज दानव से मुक्ति दिलाएगी। पर इस पीढ़ी ने भी निराश किया। इस पीढ़ी के युवक अपने पिता से अधिक लोभी और संवेदनहीन हो गए। कारण है, समाज में चौतरफा व्याप्त पतनशीलता। इसी से युवक सीखते हैं।
कोई सीधा हल नहीं है। समस्या जटिल है औऱ व्यापक सामाजिक मूल्यों से जुड़़ी है। अलग से अस्पताल, शिक्षा संस्था को सुधारा नहीं जा सकता। दहेज की समस्या भी अलग से पूरी तरह हल नहीं की जा सकती। समाज की संपूर्ण मूल्य-पद्धति होती है, खंड-खंड नहीं। हमारी जीवन मूल्य-पद्धति के केन्द्र में मनुष्यता की जगह पैसा बैठ गया है। यह सब क्षेत्रों में, सब संबंधों में है। पूरे समाज की पतनशील विकृत मूल्य-पद्धति की जगह स्वस्थ मानवीय मूल्य-पद्धति आए, तभी यह समस्या हल होगी। अभी तो मरुस्थल में जो कहीं-कहीं हरित भूमि दिख जाती है, उसी की जय बोलनी चाहिए।