हरिशंकर परसाई के व्यंग्य बेहद गंभीर विषयों पर रहा करते थे। वो गंभीरता के साथ ही कटाक्ष मारने की कला में महारत थे। मेहमानों के प्रति मेजबानों की बदलती धारणा को उन्होंने बड़ी बारीकी से पढ़ा और लिख दिया ‘क्या अतिथि देवता नहीं रहा’। ये लेख 80-90 के दशक में लिखा गया था। प्रस्तुत व्यंग्य के हिस्से उनकी किताब ‘ऐसा भी सोचा जाता है’ से लिए गए हैं जो वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई।
बदलते वक्त में मेहमानों के प्रति मेजबानों की धारणा बदली है। अब मेहमानों के आगमन पर आंखे बिछाकर आदर सत्कार नहीं होता। गेस्ट भले ही स्टेशन से सीधे सूटकेस लेकर रिश्तेदार के घर पहुंचे लेकिन वो पूछ ही लेता है कि ‘कहां रुकेंगे’? ये कहां रुकेंगे वाले सवाल को लेकर हरिशंकर परसाई एक सज्जन के अनुभव को अपनी किताब में लिखते हैं।
प्राचीन काल में अतिथि को देवता मानते थे। कोई अतिथि आ जाए तो गृहस्थ प्रसन्न होते थे और उसकी सेवा करते थे। पर अब क्या है?मैं भोपाल एक काम से गया था। सोचा, अपने एक दूर के रिश्तेदार के घर दो दिन ठहर जाउंगा। मैं उनके घर पहुंचा। उन्होंने बहुत बेमन से चाय पिलाई। मेरा सूटकेस मेरे साथ था। उन्होंने देखा ही होगा। फिर भी उन्होंने पूछा-कहां ठहरे हैं। मैं समझ गया कि मुझे ठहराना नहीं चाहते थे। मैंने कहा-किसी होटल में ठहरूंगा। इस पर उन्होंने यह नहीं कहा-होटल में क्यों? यहीं ठहरिये। आपका ही घर है।
उनकी पत्नी अधिक विषादग्रस्त थीं। वे चालू हो गईं- देखिये जी, पहले कितना प्रेम, त्याग, दया होती थी। अतिथि को देवता मानते थे। उसके चरण आपके हाथ से धोकर उसकी ऐसी सेवा करते थे जैसे घर में भगवान आ गया हो। यह नहीं पूछते थे कि कहां ठहरेंगे? महाभारत में वह नेवले की कथा है न। युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में आया था वह। उसका आधा शरीर सोने का था। पूछने पर उसने बताया- एक क्षेत्र में अकाल पड़ा था। लोग भूखे मर रहे थे। एक ब्राह्मण कहीं से कुछ गेहूं लाया। ब्राह्मणी ने पीसकर चार रोटियां बनाईं। घर में ब्राह्मण औप ब्राह्मणी के दो बेटे थे। वे चारों रोटी खाने ही वाले थे इतने में भूखा आदमी आ गया। उसने खाना मांगा। एक-एक कर चारों ने उसे अपनी रोटी दे दी और चारों भूखे सो गए। नेवले ने युधिष्ठिर के यज्ञ की और दान-दक्षिणा की प्रशंसा कर रहे ब्राह्मणों से कहा- उस भूखे परिवार के यहां धरती पर आटा गिर गया था। मैं उस पर से निकला तो शरीर के जितने भाग में वो आटा लगा, वह सोने का हो गया। मैं धर्मराज के यज्ञ में इस आशा के साथ आया था कि जूठन पर लोटूंगा तो शरीर का शेष हिस्सा भी सोने का हो जाएगा। पर लोटता फिरा, मगर बाकी शरीर सोने का नहीं हुआ। इस यज्ञ में वह पुण्य नहीं है जो उस भूखे ब्राह्मण परिवार के दान में था। इतना कहकर विदुषी ने आह भरकर कहा- अब जमाना यह आ गया है कि अच्छी नौकरी करते हैं, सम्पन्न हैं, घर में सबकुछ है मगर पूछते हैं- कहां ठहरेंगे?
हरिशकंर परसाई ने अपने लेख में कुछ ऐसे मेहमानों का जिक्र भी किया है जो सरकारी खर्चे पर घूमने आते हैं और मेहमानों के यहां रुककर पैसे बचाते हैं। वो लिखते हैं कि…
साहब शासकीय काम से गये थे। इन्हें ठहरने का खर्च सरकार से मिलता है। ये वह पैसा बचा लेते थे। किसी दूर के रिश्तेदार की, जिससे कोई सम्बन्ध नहीं, इन्हें याद आ गई। उनके घर ठहरने पहुंच गये। रिश्तेदार और उनकी पत्नी नौकरी करते हैं। बहन पढ़ने जाती है। वे तीनों सुबह से काम करने की तैयारी करते होंगे। तीनों चले जाते होंगे। घर में कोई रहता नहीं होगा। ऐसी हालत में अतिथि को घर में कैसे ठहरा लें? सास, भाई या बहन कोई आता तो घर की तरह रह जाता। इन सज्जन को जिन्होंने शायद बताया हो कि आपके ससुर के ममेरे भाई के साले के बहनोई का लड़का हूं, वे कैसे दो दिन ठहरा लेते? फिर ये अतिथि नहीं थे- झूठा खर्च वसूलने वाले सरकारी अफसर थे। और अब पति-पत्नी बैठे कुढ़ रहे हैं, कि कहां गई वह अतिथि सत्कार की प्राचीन परंपरा जब अतिथि को देवता मानते थे? क्या हुआ हमारी संस्कृति को? क्यों गिर गई हमारी उदास भावनाएं? वे आदर्श कहां गये?
पर यह कौन-सा आदर्श आ गया है कि सरकार से तो ठहरने और खाने का पैसा लेंगे, मगर मुफ्त में किसी के यहां ठहर जायेंगे औप उसका मुफ्त भोजन कर लेगें? यह सम्भव नहीं हो सकता तो कह रहे हैं- लोग कितने पतित हो गये हैं? और खुद आप?
अतिथि को देवता मानते थे, उस काल का जीवन कैसा था? जीवन पद्धति कैसी थी? औद्योगिकीकरण था नहीं। वनोपज, कृषि-उपज और गाय के दूध आदि पदार्थ होते थे। आबादी कम और भूमि बहुत थी। जीवन सरल था। न किसी को ऑफिस जाना होता था, न कारखाने, न कॉलेज। रहने की व्यवस्था सरल थी। अतिथि आ गया तो ठहरा लिया। भोजन कराया, सेवा की। तब अतिथि इतना महत्वपूर्ण होता था तो उसे देवता मानते थे।
हरिशकंर परसाई के मुताबिक पहले हमारी भौगोलिक अवस्था भी ऐसी थी जो अतिथियों को बोझ महसूस नहीं होने देती थी। 'ऐसा भी सोचा जाता है' के क्या अतिथि देवता नहीं रहा? लेख में उन्होंने लिखा है कि…नीतिकारो, धर्माचार्यों ने कुछ कारणों से अतिथियों को देवता का प्रमाण पत्र दिया था। कृषि सभ्यता। खेती से खूब उत्पादन। दूध-घी, दही की कमी नहीं। जमीन इतनी कि कितना भी बड़ा निवास बना लो। संयुक्त परिवार। कितने भी अतिथि आ जायें। खायें और पड़े रहें। होटल थे नहीं। पांथशाला बाद में चली। पंचायत गृह भी बने। पर इनके पहले किसी गृहस्थ के घर ठहरने के सिवा कोई उपाय नहीं था। इसलिए नीतिकारों, धर्माचार्यों ने अतिथि को देवता बनाया।
लेख में उन्होंने अतिथियों के प्रकार भी बताएं हैं जिसके आधार पर तय होता है कि आने वाला मेहमान सुर है या असुर। वे लिखते हैं। प्रिय अतिथि भी होता है और अप्रिय अतिथि भी। किसी के आने से खुशी होती है और किसी के आने से दुख होता है। जिसकी शक्ल से नफरत है उसे देवता कैसे मान लें? होंगे पुराने जमाने में ऐसे सन्त, परमहंस। सामान्य आदमी ऐसा नहीं कर सकता। फिर ज्यादातर लोग अपने काम से आते हैं, स्नेह के कारण नहीं। गृहस्थ जानता है कि अपने काम से आये हैं। वह उन्हें देवता कैसे मान ले?
हरिशकंर परसाई अपने लेख में बढ़ते शहरी कल्चर का भी जिक्र कर रहे हैं। वो लिखते हैं
गांव में साधारण सम्पन्न किसान परिवारों में अभी भी अतिथि खप जाता है। मगर शहर में दो कमरों का छोटा सा घोंसला मध्यमवर्गी का होता है। आमदनी सीमित। गरीबी में जिन्दगी चलाते हैं। एक बार का भोजन पांच रुपये का होता है ऐसे में अतिथि पधार जायें, तो वे देवता नहीं लगते। लोग कहते हैं भावनाएं मर गईं। भावनाएं नहीं मरीं, भावना प्रगट करने की परिस्थिति नहीं रही।
पश्चिम के कुप्रमाव का जिक्र करते हुए वो लिखते हैं
पश्चिम में जॉन आण्टी भतीजे जॉन को लिख देती हैं-- मेरे परम प्रिय जॉन, तुम आगामी बड़े दिन पर मत आना। मैं तुम्हारे लिए बिस्तर का इंतजाम नहीं कर सकूंगी। भतीजा जॉन बुरा भी नहीं मानता।
कई परिस्थितियों का जिक्र करते हुए वो लिखते हैं।
लोग धीरे-धीरे अतिथि देवता के आसन से उतरने लगे हैं, अपने सम्भावित मेजबान की कठिनाई समझने लगे हैं। क्लॉक रुम में सामान रखकर अपना काम करने चले जाते हैं और लौटकर रेलगाड़ी पकड़ लेते हैं।
हरिशंकर परसाई कहते हैं कि कुछ अतिथि खतरनाक भी हो सकते हैं। पुराने वक्त की घटनाओं को याद करते हुए वो लिखते हैं।
ऐसे अतिथि प्राचीन काल में भी होते थे, जो कपट करने के उद्देश्य से गृहस्थ के यहां ठहरते थे। सूटकेस बरामदे में रखा और अपना परिचय दिया- आपके अमुक जो चाचा है न उनका छोटा दामाद हूं। आपने चाचा को बीस साल से नहीं देखा। दामाद साहब को तो कभी देखा भी नहीं। चाचा की चिट्ठी लाते तो उनके दस्तखत जाली भी हो सकते हैं। दामाद साहब को रात को छुरा अडाकर कहें, चाबी दे। तब क्या होगा, लोग बहुत सावधान हो गये हैं।
एक परिवार कैसे मेहमानों से निपटता है, हरिशंकर परिसाई अपने अंदाज में बता रहे हैं
मुझे मालूम हुआ है कि कुछ गृहस्थ बहुत व्यवहारिक हो गये हैं और होते जा रहे हैं। एक परिवार के बारे में मुझे बताया गया वहां रिश्तेदार चौबीस घण्टे तो मेहमान रहता है। उसे मुफ्त भोजन वगैरह मिलता है। दूसरे दिन से वो पेइंग गेस्ट हो जाता है। उससे रहने खाने का पैसा लिया जाता है।
अंत में वो लिखते हैं
भावना है। पर अतिथि देवता नहीं है। मनुष्य है। हैसियत से, सुविधा से उसकी खातिरदारी हो सकती है। सुविधा नहीं हो तो उसकी अवहेलना होगी, जिसका उसे बुरा नहीं मानना चाहिए।