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महिमामंडन के मुद्दे पर हरिशंकर परसाई ने एक जबरदस्त लेख लिखा। ‘प्रतिमा का सिंदूर खरोंचे’ शीर्षक के लेख को उनकी किताब ऐसा भी सोचा जाता है से लिया गया है। जिसका प्रकाशन वाणी प्रकाशन द्वारा 1985 में किया गया था।
कवि जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही’ की एक कविता का प्रथम पद है--
कागभुशुण्ड गरुड़ से बोले
आओ कुछ हो जायें चोंचे
चलो किसी मन्दिर के अन्दर
प्रतिमा का सिन्दूर खरोंचें
कागभुशुण्ड और गरुड़ पौराणिक प्रतीक-व्यक्तित्व हैं। गरुड़ का तो ‘गरुड़-पुराण’ है जिसे पढ़ना या सुनना भयावह अनुभव है। दोनों ज्ञानी हैं। गरुड़ पर बैठकर भगवान कभी-कभी तफरी के लिए अंतरिक्ष में निकल जाते हैं। गरुड़ कभी ‘हाईजैक’ (आकाशहरण) हुआ हो, ऐसा प्रमाण पुराणों में नहीं मिलता।
कागभुशुंड (कौआ) और गरुण (ईगल सरीखा) ज्ञानी हैं। बैठकर कथा पुराण कहते सुनते हैं, ज्ञान चर्चा करते हैं। जिज्ञासु की शंकाओं का समाधान करते हैं। कोई जिज्ञासु कागभुशुण्ड से पूछता है- रमापति कहें या सीता-पति ? तो कागभुशुण्ड कहते हैं- गरुड़ से पूछो। वह अधिक ज्ञानी हैं, और यही प्रश्न को गरुड़ से पूछे तो वे कहते हैं- कागभुशुण्ड से पूछो। वे मुझसे अधिक ज्ञानी हैं। दो ज्ञानियों में सद्भाव का यह एकमात्र उदाहरण है। मुझ पर विश्वास ना हो तो विश्वविद्यालय के आचार्यों से पूछ लीजिए। ज्ञानियों में स्वाभाविक संबंध यह है- पंडित पंडित को देखकर कुत्ते की तरह गुर-गुराता है। यह संस्कृत सुभाषित है।
दरअसल परसाई जी महिमामण्डन को लेकर कटाक्ष कर रहे हैं। वो कहते हैं कि महिमा ओढ़ने वाले होते हैं, वे होते हैं जो महिमामण्डित होने का इंतजाम खुद कर लेते हैं। और वे भी बिरले होते हैं जिन्हें लोग सच्ची श्रद्धा से महिमामण्डित करते हैं। ऐसे भी होते हैं जो होते कौओ हैं पर अपने को हंस की महिमा से मण्डित करवा लेते हैं। उन्होंने इस बात को और गहराई से समझाने के लिए एक घटना का उदाहरण भी दिया।
एक घटना छोटे महिमामयों के बारे में है। कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे। एक राज्य में दबदबा था। एक शहर के व्यापारियों ने तय किया कि इन के नाम से एक सार्वजनिक भवन बनाया जाय। मुख्यमंत्री से शिलान्यास करवा लिया गया। उनके नाम से भवन बनाने की घोषणा भी कर दी। भवन बन ही रहा था कि सरकार पलट गई। वे मुख्यमंत्री नहीं रहे। संयुक्त विधायक दल की सरकार बनी और एक जनसंघी मुख्यमंत्री बन गए। अब व्यापारियों में सलाह हुई। कहने लगे- नया मुख्यमंत्री उनका कट्टर शत्रू है जिनके नाम पर हम भवन बना रहे हैं। यह मुख्यमंत्री हमसे नाराज हो जाएगा। तो क्या करें ? किसी ने कहा- तो पत्थर अलग कर दो जिस पर भूतपूर्व का नाम खुदा है, और नए मुख्यमंत्री से उसके नाम के भवन का शिलान्यास करा लो। दूसरों ने कहा यह मुख्यमंत्री भी साल भर से ऊपर नहीं रहेगा। जोड़-तोड़कर बनाई गई सरकार है। किसी ने कहा- तो फिर कांग्रेस की सरकार बनेगी। अधिक सयाने ने कहा- पर यह क्या तय है कि यही मुख्यमंत्री बनेंगे जिनके नाम का पत्थर लगा है। पांच उम्मीदवार दिल्ली में चक्कर लगा रहे हैं। तो फिर क्या करें ? व्यापारी ने कहा- भैया, एसे बड़े आदमी के नाम से भवन बनाओ जो ना कभी मुख्यमंत्री बने न निकाला जाए। सबसे अच्छा मरा हुआ बड़ा आदमी होता है। ‘लोकमान्य तिलक भवन’ बनाओ। निकाल दो उस मुख्यमंत्री का पत्थर। वो पत्थर निकल गया और लोकमान्य तिलक भवन बन गया।
ऐसे ही एक और वाकये पर व्यंग्य सम्राट ने लिखा है
महात्मा गांधी का सिंदूर कभी पुंछता है और कभी लगता है। मैं जब स्कूल में पढ़ता था, तब अंग्रेजी राज के भक्तों के मुंह से यह प्रचार सुनता था- ये गांधी हरिजनों के नाम से पैसा बटोरता है और लड़के के नाम से अहमदाबाद में कपड़े का कारखाना खोलता है।
स्वतंत्रता के बाद हर शहर और कस्बे में सड़कों का नाम ‘महात्मा गांधी मार्ग’ रखा गया। यानी यह देश गांधी मार्ग पर चल रहा है। गांधी जी का सिन्दूर ही नहीं पोंछा, उनकी जान भी ली हिंदू सांप्रदायिकता ने। पर गांधी की जान तो गई, महिमा बड़ी बढ़ी। आज जो भयावह सांप्रदायिक राजनीति चल रही है, तब गांधी के ‘ईश्वर-अल्लाह तेरे नाम’ की याद बहुत आ रही है। बीच में कुछ साल सांप्रदायिकता ने भी कूटनीतिक तिलक लगाया। भारतीय जनता पार्टी ने सोचा कि इस कमबख्त गांधी से छुटकारा नहीं है। और छुटकारा नहीं है ‘समाजवाद’ शब्द से जो हर भारतीय के दिमाग में जम गया है। तो भारतीय जनता पार्टी ने अपना कार्यक्रम ’गांधीवादी समाजवाद’ घोषित कर दिया। यह अटल बिहारी वाजपेयी ने करवाया। गांधीजी का चित्र भारतीय जनता पार्टी के मंचों पर सुशोभित होने लगा। तीन साल बाद ही कट्टरपंथियों ने गांधी को त्याग दिया। अहिंसक गांधी से एक हिंसा हो गई- अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक भविष्य की।वे हाशिये पर आ गये। नीति-निर्माता के बजाय ’शोब्वाय’ हो गये। लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा करते हैं और वाजपेयी उनकी जय बोलते हैं।
राजनीति के साथ-साथ हरिशकंर परसाई ने प्रेमचंद के नाम का भी उल्लेख किया है। वे लिखते हैं।
कमल किशोर गोयनका प्रेमचंद का शोध कार्य काफी कर रहे हैं। मैंने जो पढ़ा उसे मालूम होता है वे प्रेमचंद का सिंदूर पोंछ रहे हैं। उन्होंने शोध की है कि प्रेमचंद गरीब नहीं थे। उनका चार हजार रुपयों से ऊपर पैसा इलाहाबाद के बैंक में जमा था। वे सूदखोरी भी करते थे। एक विडंबना है, जो शायद सिर्फ भारतीय मानस की है। यहां गरीबी को श्रद्धा मिलती है। कोई लेखक क्या इसलिए महान है कि वह गरीब है ? अगर वह घटिया लिखता है तो भी ? कोई लेखक पांच बार जेल गया है मगर वह घटिया लिखता है, फिर भी क्या वह महान इसलिए मान लिया जाए कि वह पांच बार जेल गया है ? उसका सम्मान उसके राजनैतिक संघर्ष के लिए होना चाहिए, उसके साहित्य के लिए नहीं। प्रेमचंद गरीब नहीं थे जैसा माना जाता है- तो यह खुशी की बात है। मगर गोयनका इसे इस तरह पेश करते हैं यह कलंक की बात है कि बैंक में उनका पैसा था। ताल्सताय बहुत संपन्न थे। ब्रिटेन में जो लार्ड होते हैं, उनकी हैसियत के। पर रुस के गरीब किसानों की दुर्दशा की इतनी संवेदना से ऐसा मार्मिक चित्रण उन्होंने किया है कि वे खुद गरीब किसान की तरह रहकर उस पीड़ा में शरीक हो गए थे। सिंदूर खरोंचने वाली रूसी ताल्सताय का भी सिंदूर खरोंचते थे।
इंदिरा गांधी इस मामले में इस साल मजे में रहीं। उनके जन्मदिन के पहले ही कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। यों चंद्रशेखर इंदिरा-विरोधी रहे हैं। वे जयप्रकाश के नेतृत्व में चले ‘संपूर्ण क्रांति‘ इंदिरा-विरोधी आंदोलन के एक नेता थे। वे इंदिरा गांधी की 1977 में हार के आयोजक थे। पर उनकी सरकार इन्दिरा के बेटे की कांग्रेस ने बनवाई तो इंदिरा जी का जन्मदिन अच्छा मनाया गया।टेलीविजन ने भी काफी कार्यक्रम दिये। राजनीति का फेर है, सिन्दूर लगाना और सिन्दूर खरोंचना।