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नाम की सियासत: उफ्फ! चमचों और एहसानफरामोशों के बीच कहां अटके हैं आप

अक्षय नेमा मेख Updated Sun, 02 Sep 2018 01:16 PM IST
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विस्तार

जब-जब मेरा नाम होने का समय आया तब-तब मैंने 'नाम में क्या रखा है' सोचकर अपने किसी प्रिय का नाम घोषित करवा दिया। जिसका असर यह हुआ कि काम-दाम और नाम तीनों उसी प्रिय के हो गए । जिन्हें लगता है कि ‘नाम में कुछ नहीं रखा, व्यक्ति अपने काम से जाना जाता है।’ वे लोग या तो बहुत भोले होते हैं या फिर बहुत बड़े बेवकूफ। मैं बेवकूफ किस्म का प्राणी हूं। क्योंकि जब किसी परिचित का नाम-दाम होते देखा, तब मुझे यह ज्ञात हुआ कि काम महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि नाम महत्वपूर्ण होता है। इसी से दाम प्रसन्न होता है।

अब मैं तो ठहरा बेवकूफ किस्म का प्राणी, जो स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाता है। खैर, इन भोले और बेवकूफ किस्म के अतिरिक्त एक और नस्ल होती है, जो कोई काम किए बिना ही नाम और दाम दोनों कमाने की जुगाड़ में लगी रहती है। इस नस्ल में चमचे और एहसान फरामोश किस्म के लोग पाए जाते हैं। जो करते-धरते कुछ नहीं, बस मुंह चलाकर स्वप्रचार में स्वयं का नाम कर लेते हैं। 

अब चमचों को ही ले लो। क्षेत्र में नेताजी का जितना नाम नहीं होता, उससे कहीं ज्यादा नाम उनके साथ दीमक की तरह लगी नितड़ियों का होता है। कोई भी काम हो जनता क्षेत्रीय नेता या विधायक के पास जाने से पहले मिस्टर चमचा से मिलना पसंद करती है। चमचों के तय करने पर ही जनता 'विधायक निवास' में घुसने की चेष्टा कर पाती है। 
 

गांव-देहातों में चमचे अक्सर यहीं कहते फिरते है कि 'फलां काम वो करवा देगा।' भैया फलां काम तुम करा दोगे, तो क्षेत्रीय नेता या विधायक क्या देखने के लिए बनाया है? उस पर रहम करो और उसे भी कुछ करने दो। आजकल इस तरह के चमचों की कुछ ज्यादा ही खरपतवार देश में देखने को मिल रही है। यह केवल नेता के ही नहीं, बल्कि लेखकों, विभागों, अधिकारियों, सबने अपने-अपने चमचे पाल रखे हैं। तो उनका नाम होना भी स्वभाविक है। 

दूसरी किस्म होती है एहसान फरामोशों की। इनका संबंध सिर्फ सियासत से होता है। मौका देखकर ये लोग स्वयं के घर में भी सियासत करने से बाज नहीं आते और अक्सर असहाय भाई को नीचा दिखाकर अपना नाम रोशन करने में तत्पर रहते हैं। यही हाल देश की सियासत का भी है। जनसमुदाय के मुद्दों की अनदेखी कर स्वयं के एवं स्वयं के दल का नाम हो, इसके लिए पुराने हो चुके नामों को घिस-घिसकर सामने लाया जाता है और नाम पर सदभावना ग्रस्त राजनीति कर नाम पर नाम किया जाता हैं। उफ्फफ...! ये सियासत में नाम और नाम की सियासत। इससे तो खुदा ही बचाए।

 
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