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कांव-कांव के श्राद्धपक्षी दिन शुरू हो चुके हैं। सर्वत्र कोहराम मचा हुआ है। मेरी सुनो, मेरी सुनो के शोर से यजमान भ्रमित हैं। इस शोर का जोर राग की शुद्धता में नहीं, बस सुनाने की संख्या पर है। वे तरह-तरह से सुना रहे हैं। यात्राओं और रोड शो के द्वारा, लोक-लुभावन योजनाओं और घोषणाओं के द्वारा। लोकतंत्र का महोत्सव अब श्राद्धपक्षी आयोजन में बदलता जा रहा है, जहां पितरों का बलात स्मरण एक मजबूरी है।
हमारे देश में वैयक्तिक स्वतंत्रता सर्वोपरि है। नियम-कानून और संविधान सब ताक पर। नागरिक मन आहत न हो, समुदाय विशेष नाराज न हो, वोट बैंक फिसल न जाए, ये प्राथमिकताएं पहले हैं। हमारे मौसमी काग इसी को तरजीह देते हैं। वे सिर्फ अपना भाग लेने के लिए मनुहार की मुंडेर पर आते हैं और आपको झूठी दिलासाओं का तृप्त संसार दे फुर्र हो जाते हैं।
इधर इनकी कांव-कांव, परस्पर लांछन और भदेस उक्तियों से सभ्य, सांस्कृतिक पहचान का ओजोन मंडल क्षरित हुआ है। पर्यावरणविद मानते हैं कि कौए लाखों टन कचरा साफ करते हैं और गंदगी मिटाते हैं। लेकिन ये कौए लगातार गंदगी फैला रहे हैं। वैचारिक सड़ांध में वृद्धि कर रहे हैं। ये लोकतांत्रिक सफेदपोश काग, काले कागों के नाम पर कलंक हैं। पितरों के पुण्य स्मरण को इन्होंने एक धंधा बना लिया है। इनके फूहड़ नाट्याभिनय से वितृष्णा-सी उत्पन्न होती है।
इन कौओं की भूख प्रबलतम है। ये गाय और कुत्ते का अछूता भी डकार जाना चाहते हैं। इतिहास इनकी जठराग्नि के कारनामों से रंगा हुआ है। खाद्य-अखाद्य का इन्हें भेद नहीं है। कभी कबीर ने लिखा था, “कागा काकौ धन हरै।” ये कागा मौद्रिक धन भले ही न हरें, लेकिन नैतिक और आत्मिक धन जरूर हर लेते हैं। इससे आपके विरोध का बीज बांझ हो जाता है।
संवेदनशीलता गुम हो जाती है। इनकी कांव-कांव से शोर बढ़कर चालीस डेसीबल से ज्यादा हो गया है। आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगी हुई है। जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगती है, तो ये विनम्र सुझाव देते हैं कि गांधी जी की एक सौ पचासवीं जयंती मना रहे हैं, कुछ तो उनके मूल्य आप लोग भी सीखो। गांधी जी के बंदरों की तरह न बुरा देखो, न सुनो और न बोलो।
बुराई से निरपेक्ष रहना ही भले लोगों का आपद् धर्म है। नेपथ्य में गीत बज रहा है 'झूठ बोले कौआ काटे...।' लेकिन कौआ काटे तो किसको, क्योंकि सभी एक ही थैली के जो ठहरे। ये काग आपके हाथ से माखन-रोटी रूपी मताधिकार छीन पांच साल को अदृश्य हो जाएंगे। कोयलें अवसाद में हैं। उनकी शास्त्रीयता के दिन लद गए। उनके लिए पिंजरें और शाखें तय हैं।
उन्हें वहीं बैठकर दरबारी कान्हड़ा गाना है। उन्हें अब यायावरी गायन की छूट नहीं है। संभव है कतिपय कौओं ने उनके विरुद्ध यह फरमान जारी करवाया हो, ताकि उनके बेसुरेपन पर जनता का नोटिस न हो। संपूर्ण परिदृश्य कर्कश ध्वनि और कोलाहल से भर उठता है और यजमान दिग्भ्रमित हैं कि या इलाही ये माजरा क्या है।
इधर असली कागों में विमर्श चल रहा है कि ये सफेदपोश काग तो हमें भी मात दे रहे हैं। न इनकी कुछ नैतिकता है, न ही मान-मर्यादा। वे हतप्रभ हैं। इस श्राद्ध पक्ष में अपना भाग लेने जाएं या न जाएं। कहीं ऐसा तो नहीं, उन्हें देश विरोधी घोषित कर दिया जाए व्यवस्था के विरोध में सिर उठाने पर। बहरहाल, काले कागों ने सफेदपोश कागों से टिप्स लेने व अपने को अपडेट करने का मानस बनाया है कि कैसे यजमान को मूर्ख बनाकर जादू बरकरार रखा जा सकता है।