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भारत में विरोध जताने का एक बहुत घिसा-पिटा तरीका अपनाया जाता है। यहां आमतौर पर लोग हाथों में पोस्टर लेकर मार्च नहीं करते बल्कि वो विरोध की शुरुआत हंगामे से करते हैं। पहले वो हंगामा करते हैं, बस जलाते हैं फिर उनपर लाठी चार्ज किया जाता है और फिर कुछ लोगों को थाणे में बंद कर दिया जाता है और अगले दिन अखबार में खबर छप जाती है। बस हो गया प्रदर्शन।
आज रात से ही दिल्ली मेट्रो के कई स्टेशन बंद रहेंगे। इसका कारण है जात आरक्षण की मांग करने के लिए लोग दिल्ली कूच करेंगे और ट्रेन भी रोकेंगे। ट्रेन रोकना भी एक बहुत ज़बरदस्त तरीका है। भई जब तक कुछ ट्रेनें लेट न हों, लोगों को परेशानी न हो, हाहाकार न मचे, तब तक विरोध या प्रदर्शन का कोई मतलब नहीं बनता है।
वजह ये है कि हंगामा होगा तो बात मीडिया तक पहुंचेगी और मीडिया उसे लोगों तक पहुंचाएगा। अब सोचने वाली बात ये है कि अगर किसी व्यक्ति को कुछ लोगों के प्रदर्शन या धरने से किसी तरह की तकलीफ़ होती है तो क्या वो उनकी बात को कभी समझ पाएंगे?
इसके अलावा अपना हक़ मांगने के लिए बस और दूसरी गाड़ियों को जलाने और अन्य सुविधाओं को नुक्सान पहुंचाने का आखिर क्या मतलब निकलता है। ये तरीका बहुत गलत है और ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए। लेकिन इसके पीछे भी एक बड़ा कारण है कि क्यों धरना उग्र रूप धारण कर लेता है।
दिल्ली में एक जगह है जंतर मंतर। एक तो वो जगह जहां सैलानी घूमने आते हैं। उससे थोड़ा आगे चलकर वो जगह है जहां भारत के कोने-कोने से आए लोग धरना देते हैं। ये जगह कनॉट प्लेस के बहुत पास है लेकिन दिल्ली के आधे से ज़्यादा लोग यहां कभी नहीं गए होंगे। जंतर मंतर पर देश के अलग-अलग राज्यों से आए हुए लोग अलग-अलग मुद्दों पर धरना देते हैं। लेकिन कितने लोग इन्हें जाकर सुनते हैं?
कितने लोगों को पता होगा कि यहां जो लोग खुले आसमान के नीचे बैठे हैं आखिर वो क्या कहना चाहते हैं? कुछ लोग यहां आते हैं और चले जाते हैं लेकिन कुछ यहां सालों-साल से बैठे हुए हैं। इन लोगों को धरना करने के लिए एक जगह दे दी गई है। लोग यहां आते हैं और अपनी बात रखते हैं लेकिन क्या कोई इन लोगों के मुद्दों को जानता या समझता है?
भारतीयों की दिक्कत यही है कि जब तक हंगामा न मचाया जाए उन्हें दूसरों की तकलीफ़ से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इसीलिए जब लोग किसी की समस्या की ओर ध्यान नहीं देते तो वो लोगों के लिए समस्या उत्पन्न करने लगते हैं। वो सोचते हैं कि प्रशासन ऐसे तो अपने कान बंद करके बैठा रहता है लेकिन अगर हम उपद्रव करेंगे तो इस ओर सभी का ध्यान जाएगा और सम्बंधित लोग मुद्दे पर प्रतिक्रिया देने के लिए मजबूर हो जाएंगे।
इसलिए जब तक भारत में लोग समस्याओं को समझना शुरू नहीं करेंगे विरोध का ये तरीका चलता रहेगा। लेकिन धरना प्रदर्शन करने का ये अर्थ कतई नहीं निकलता है कि इससे आम लोगों को किसी तरह की कोई तकलीफ़ हो लेकिन अंत में सवाल फिर वहीँ का वहीँ रह जाता है कि शांति से विरोध प्रकट करने वालों पर क्या कोई ध्यान देता है?