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चाट खाते हुए चटखारे कोई भी मार सकता है, लेकिन चाट के बारे में बताकर आपसे चटखारे महान व्यंग्यकार के. पी. सक्सेना ही लगवा सकते हैं। एक जमाने में चाट और चटखारों के लिए मशगहूर रहे लखनऊ के अमीनाबाद की चटखोरी शामों का सक्सेना जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से ऐसा चित्र उकेरा है कि अगर आप खाना खाकर भी बैठे हैं तो कसम से भूख लग आएगी। सक्सेना जी ने यह 'व्यंग्य' 28 जुलाई 2013 को लिखा था।
वह जो कहते हैं न कि वह शाख ही नहीं रही, जिस पर आशियाना था। जब पैसों का टोटा था तब मन करता था कि पत्ते पर पत्ते खींचते ही चले जाएं। अब पैसे हैं तो आंतों ने जवाब दे दिया। मिर्च मसाला, खटाई, तेल बर्दाश्त नहीं कर सकते। कॉलेज के दिनों में हमारे दोस्त सगीर मियां जबर्दस्त 'चाट ईटर' थे। बद-बद के पानी के बताशे और टिक्की खींचते थे। तुकबंदी में कहा करते थे -'बाद मरने के मेरे कब्र पे आलू बोना... लोग समझें यह भी कोई चाट का शौकीन था'। सच पूछिए तो उन 60 सालों पहले, शाम होते ही पूरा लखनऊ चाटमय हो उठता था। मिर्च-मसालों की सीं....सीं...। चाट फरोश राम नयन कहा करते थे कि मुंह से मिर्च की सीं...सीं... न निकले तो यह चाट की तौहीन है। चटखारे नहीं लेने हैं तो जाके इमरती जलेबी भकोस लो। चाट के जलवे बने रहने दो।
बस साहब, शाम हुई और ठेले सज कर आ लगे... दालान में और हनुमान जी के मंदिर के पास। अमीनाबाद चाट का गढ़ था। चौक में अकबरी दरवाजे के पास, चारबाग में सुदर्शन के पास, डालीगंज और रकाबगंज में। तवे पर टनाटन बजती कड़छी संकेत देती थी कि आलू की टिक्कियां तवे पर आ गई हैं। कद्रदानों की भीड़ इकट्ठी होनी शुरू। पर्दा नशीनों के तई टेम्परेरी कलाबों के अंदर लगी बेंचें। छोकरा सर्विस में। पेट भर टिक्की, बताशे, उबली मटर के लिए एक अठन्नी काफी। धुले साफ पत्तों और दोनों में चाट। कुल्हड़ में ठंडा पानी। बच्चे को मिर्च लग जाए, रोने लगे तो डब्बे से निकाल कर एक गोल पेड़ा फ्री। असली आर्ट था गोल गप्पे यानी पानी के बताशे खाना। मुंह इतना काफी खोलना पड़ता था कि बताशा पूरा समा जाए और मसालेदार पानी की एक बूंद शर्ट पर न गिरे।
गोल गप्पों का सारा हुनर उसके चटपटे पानी में था। लोग पत्ता मोड़ कर अलग से पानी मांग कर पीते थे। जाड़ों भर माता बदल पंसारी वाले दालान में एक साहब छुंकी हुई मटर का थाल लगाते थे। ऊपर से नींबू चटनी... जायका टनाटन।
बच्चे तक पतंग का पेंच काटने या कंचों में जीतने पर गोल गप्पे की बाजी बदते थे। पेंच काट चार गोल गप्पे खिलाएंगे... हां। लालबाग में बसंत सिनेमा के सामने वाली गली 'चाट हाउस' जगह कम थी...भीड़ ठुंसी रहती थी। (अब पता नहीं है या नहीं) घर ले जाने के लिए चाट की पैकिंग भी एक हुनर था। दोने, पत्ते सींके, मजाल है एक बूंद चटनी या दही थैले में टपक जाए।
उन दिनों (54-55 के आसपास) अख्तर भाई मेरे खास दोस्त थे। उनके बिगड़े दिल बड़े मामू मिज्जन साहब मेहरा सिनेता (तब रॉयल) के सामने गली में रहते थे। लखनवी दास्तानों का खजाना था उनके पास। हुक्के के शौकीन। अख्तर भाई तड़ से हुक्का भर लाए और दास्तान सुनाने बैठ गए चाट की। मामू बोले, 'अब आप जानो मियां अंग्रेज मिर्च-मसाला-खटाई से परहेज करते थे। पर अपने जिम्मी लंदन (लिन्डन जेम्स) चाट के धनी। सुना था कि सरकारी खजाने के कोई बड़े अफसर थे। शाम होते ही खुली मोटर में आए। हटो.. बचो... मच गई। ठेलेवाले अदब से खड़े। कहीं टिक्की खाई, कहीं बताशे, कहीं दही-बड़े। जाते-जाते दस-दस के दो नोट ठेले पर। 'बांट लेना' कहकर अपनी गाड़ी में। पांच का खाया 20 दे गए। एक दिन गजब हो गया। मेम को भी साथ लाए। झमाझम फ्राक और मोतियों वाला हैट पहने। पहला ही बताशा मुंह में रखने से पहले फूट गया। सारा पानी फ्राक पर। पांव पटकती गाड़ी में जा बैठीं। लंदन साहब देखते-देखते सोलह बताशे गटक गया। और हां, वह तुम्हारे सिनेमा के पुराने गाने वाले मुकेश साहब। अमां क्या हसीन आदमी था। लाटूश रोड पर कोई माथुर वकील उनके रिश्तेदार थे। वहीं ठहरते थे। शाम को अपने रिश्तेदार के भाई के साथ चाट खाने आए। खाते जाएं, नाक आंख से पानी बहता जाए। उनके भाई उन्हें छेड़ने को उन्हीं का गाया गाना गुनगुनाते 'पहली नजर' फिल्म का...आंसू न बहा फरियाद न कर मुंह जलता है तो जलने दे। मुकेश मियां खा पीकर, पैसे चुका कर वापस। तब पर्दे के पीछे गाने वालों को कौन पहचानता था।
नाइंसाफी होगी कि चाट पर बात हो और तिवारी के ठेले का जिक्र छूट जाए। तवे पर खालिस देशी घी। फर्लांग भर दूर से महकता था। लाटूश रोड पर, पेड़ तले पुराने आरटीओ दफ्तर के सामने। शौकीनों की भीड़। आलू की टिक्की का जलवा। खालिस घी और शुद्ध गाढ़े दही की वजह से तिवारी का पत्ता महंगा पड़ता था। एक रुपये का। और सब आठ आने वाले। मगर तिवारी के ग्राहक उनके मुरीद थे। एक दिन किसी ने अमीनाबाद में बेपर की उड़ा दी कि चाट खाने से पेट में अल्सर (घाव) होता है। मुन्ना लाल कहार (चाट वाले) उबाल खा गए। बोले कि कोई भकुआ डॉक्टर साबित तो करे। ठेला भी गोमती में फेंक दें, खुद भी छलांग लगा दें।
बदलते वक्त के साथ शौक और चटखारे दुम दबाने लगे। अंग्रेजियत हावी हो गई। पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन... पंजाब के छोले-भटूरे और दक्षिण भारत के डोसा इडली ने सिक्का जमा लिया। अब न वह घी रहा न मसाले, न बनाने खिलाने का हुनर। लकीर पीटने को शहर में गिने-चुने ठेले वाले रह गए हैं। कुछ रेस्त्रां में भी चाट मिल जाती है, मगर ठेले के पास खड़े होने का मजा ही कुछ और था। खैर, हम अपनी बाजी खेल चुके। वक्त के पत्ते अब नई पीढ़ी के हाथों में हैं। परमात्मा खुश रखें। नामवर शायर जनाब 'जिगर' मुरादाबादी लखनऊ आते थे तो उनकी पसंद की मीठी चटनी वाली छोटी-छोटी खस्ता टिकियां पेश की जाती थीं। बहरहाल अब यादों का ठेला आगे सरकाइए, इस शेर के साथ
वह दिन हवा हुए कि पसीना गुलाब था
अब इत्र भी मलो तो पसीने की बू नहीं।