विस्तार
भारत की पुरानी परेशानियों में से एक हैं, ‘गंदगी’। इसी गंदगी पर पद्मश्री के पी सक्सेना ने बड़ी सफाई से व्यंग्य किया। अगस्त 2013 को लिखे गए इस लेख में उन्होंने बैंकॉक और लखनऊ की तुलना गंदगी के तराजू पर की है।
चुनांचे 26 साल पहले एक हास्य आयोजन में बैंकॉक (थाईलैंड) जाना हुआ। वहां के एक मारवाड़ी संस्थान ने तीन जनों को भारत से बुलाया था। दो दिल्ली से, मैं लखनऊ से। रातभर का हवाई सफर,...सुबह पांच बजे पहुंचे। संयोजक मौजूद थे। मैंने देखा कि वहां की सारी टैक्सी ड्राइवर लड़कियां हैं। पैंट-शर्ट पहने... पूछने पर पता लगा कि यहां अधिकांश बाहरी काम लड़कियां करती हैं। सब इन्हें 'नौन’ कहते हैं... माने बहन। एयरपोर्ट से बाहर आते ही दूर तक देखी हरियाली की कतार... सब एक साइज के पेड़। बीच में चमचमाती सड़क। जैसे किसी ने सुबह-सुबह ब्रश से पॉलिश कर दी हो।
लखनऊ में भी एयरपोर्ट (पुराना) से राजभवन तक पेड़ थे, मगर पेड़ों से ज्यादा विज्ञापन और होर्डिंग। सड़क और डिवाइडर से भी पैसा कमा रहे हैं। खैर, पांच दिन बैंकॉक के 7 स्टार होटल रूआमचित में रहा। पूरा बैंकॉक अपने लखनऊ से छोटा, पर सफाई और हरियाली का ऐसा आईना कि देखते ही शर्म आ जाए। जब महाराजा अतुल्य तेज भूमिधर रामा-9 वहां के शासक थे, पेड़ की एक डाल काटने पर भी सख्त सजा। यहां कोई सुंदर लाल बहुगुणा नहीं, पर पेड़ पिता की तरह पूजे जाते थे। एक दिन तड़के ही हम तीनों घूमने निकल गए। तीनों सिगरेट के शौकीन। बचे हुए टुकड़े सड़क पर फेंक दिए। एक बुजुर्ग पीछे आ रहे थे। झुककर टुकड़े उठाए और लैंपपोस्ट से बंधी हरी बाल्टी में डाल दिए। हम शर्म से पानी-पानी। बोले-'कोई बात नहीं, बस इतना याद रखना कि सड़क अपनी सफाई खुद नहीं करती है, हमें ही उसका रूप निखारना पड़ता है। मैं यहां कॉलेज में केमिस्ट्री का प्रोफेसर हूं। अब यहां सैटल हूं। भारत नहीं जाता। वहां के शहरों में गंदगी, टूटी सड़कें और कटे पेड़ बर्दाश्त नहीं कर सकता, सॉरी माफ करना।
अपने शहर 'सिटी ऑफ गार्डेंस’ वापस लौटे। चारबाग से घर तक वही शाश्वत गंदगी, जो छोड़ गए थे। कहीं-कहीं झाडू लगी भी थी तो जमादार साहब ने कीमती माल समझ कर सड़क किनारे ही कूड़ा सहेज दिया था। ऊपर से तुर्रा... जिसे जहां महसूस हुई, वहीं दीवार की तरफ मुंह करके फारिग हो लिया। वल्लाह...शहर-ए-तहजीब, तुझे सलाम। यहां पुराना जोक याद आता है। कोई 60 साल पहले मैं मित्रवर तलत महमूद और अकरम जमाल रेडियो से विधानसभा की तरफ। एक जगह दीवार पर किसी ने लिख दिया था-यहां गधे मूतते हैं। तलत उछल पड़े। वाह-रे मेरे शहर यहां इंसानों के लिए नहीं, गधों के लिए बाथरूम हैं। तलत भाई आज जिंदा होते तो इस खुदे पड़े पूरे शहर को देखकर कहते-'वाह अपने मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आ पहुंचे लखनऊ में ही।’
वजीरगंज में था तो सुप्रसिद्ध उर्दू कथाकार जनाब अली अब्बास हुसैनी (मुंशी प्रेमचंद के समकालीन) मेरे पड़ोसी थे। गली में सफाई न देखकर कहा करते थे-मियां, अंग्रेजों का जमाना था। हर थाने पर सुबह चार बजे का गजर सुनकर जमादार झाडू, टोकरी लेकर अपने इलाके में निकल पड़ते थे। पांच बजे शहर के जागने से पहले सब चमाचम। जाने किधर आ जाए हाकिम अपने घोड़े पर। सफाई से खुश हो गया तो एक अठन्नी उछाल दी जमादार के जलेबी खाने को। फिर शहर की गलियां और सड़कों की नालियां। आगे जमादार, पीछे भिश्ती पानी डालता हुआ। हो गई सफाई। हजरतगंज से विधानसभा... कैसरबाग... बंदरियाबाग... यूनिवर्सिटी...किसी तरफ निकल जाओ। दोनों तरफ घने दरख्तों का शामियाना। नीचे चमकती सड़क। शायर मजाज लखनवी ने कहा था-'वाह क्या सड़क है बोतल की ढकनी गिर जाए तो अठन्नी जैसी दूर से चमकती नजर आए…’। पुराना शहर छोड़कर इंदिरानगर आ बसा (एशिया की सबसे बड़ी कॉलोनी) बड़े लोगों के बड़े बंगले। बाउंड्री के बाहर रेलिंग लगाकर उम्दा पौधे, लहलहाते फूल। कॉलोनी एक तस्वीर जैसी। मेरे बेटे ने भी काफी खर्च करके रेलिंग और फूल लगवाए। फिर आदेश आया कि रेलिंग उखाड़ो वरना सरकारी गाड़ी उखड़वा ले जाएगी। सब उखड़ गर्ईं। बोले कि यह अतिक्रमण है। अब कॉलोनी में सुअर लोट रहे हैं। वाह रे लखनऊ....माई ग्रीन सिटी (सिर्फ सरकारी पोस्टरोंं पर) इस पॉश कॉलोनी की आधा किलोमीटर तपती भुनती सड़क पर सिर्फ एक पेड़ है (जाने कटने से कैसे बच गया)। हुसैनी साहब मरहूम की बात पर यकीन नहीं होता कि सन 40 में अंग्रेजी फरमान था कि जिधर पेड़ नहींं हैं वहां दो पेड़ बड़े करके दिखाओ और जर्मन सिल्वर की दो थालियां, कटोरियां, गिलास इनाम में।
पेड़ों के रक्षक सुंदरलाल बहुगुणा के चिपको आंदोलन से प्रभावित होकर मैंने सन 70 में एक रेडियो नाटक लिखा था-'दरख्तों का दर्द’। एक घंटे का नाटक पूरे देश में प्रसारित हुआ रेडियो स्टेशन की मार्फत। मेरे पास बहुगुणा जी का एक पोस्टकार्ड आया बस एक लाइन..'आपकी भावना और पेड़ों के प्रति पीड़ा को मेरा प्रणाम।’ देखकर दर्द होता है कि शहर को हर-भरा रखने के बजाय कुछ शासकों ने इसे पत्थर का बना दिया। मूर्तियां...हाथी...पेड़ जो थे, वे भी कट गए। शहर बहुत बढ़ गया है...आबादी भी। रास्ते साफ रखने, हरियाली लगाने के संकल्प लेने होंगे। आखिर बंगलूरू और मैसूर इतने साफ, हरे-भरे कैसे हैं (मैंने इतनी हरियाली कहीं नहीं देखी)। 45 साल पहले मनोज कुमार, माला सिन्हा की एक फिल्म देखी थी 'हरियाली और रास्ता’। फिल्म भी अच्छी थी, नाम भी। वही नाम आज यादों में फ्लैश कर गया। पेड़ विहीन रास्तों को देखकर शेर याद आता है।
'जब दूर तलक धूप में साया न पाएगा,
यह आखिरी दरख्त बहुत याद आएगा।