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मशहूर व्यंग्यकार के पी सक्सेना की खासियत रही कि वो अपने वाक्य चित्रण से आपको दुनिया के किसी भी जगह का भ्रमण करा सकते हैं। साल 2013 में उनके द्वारा लिखा गया लेख ‘नाच,गाना, ढिशूम पांच आने में’ आपको किसी टाइम मशीन की तरह लगेगा। ये लेख आपको उन यादों के झरोखों में ले जाएगा, जहां से रौशनी पड़ने पर 70 एमएम के पर्दे पर कल्पनाएं चित्रित होती थी। तो आइए, चलते हैं के पी सक्सेना की कलम को पकड़ कर उस दुनिया में….
वे मेरे रेलवे के शुरू के दिन थे। 53-54 के आसपास। प्रतापगढ़ रेलवे बुक स्टॉल के कीपर थे एक खामोश खस्ता हाल हजरत। बाद में पता लगा कि ये जाने-माने शायर नाजिर प्रतापगढ़ी हैं। उन्हीं का एक शेर है:
इस दर्जा भयानक है तस्वीर-ए-जहां नाजिश
देखे न अगर इंसा कोई ख्वाब तो मर जाए।
ख्वाब मतलब डाइवर्शन... इंटरटेनमेंट.... मनोरंजन। आज लोगों के पास वक्त कम है, मनोरंजन के साधन ज्यादा। हर घर टीवी, कहीं-कहीं एक घर में तीन-चार। फिर भी छोटे पर्दे से दिल न भरा तो दीवार पर बड़े पर्दे का एलसीडी। एक डीवीडी ठोक दिया। घर भर ने पूरी पिक्चर देख ली। सिनेमाघरों का बेड़ा गर्क। सिनेमा हॉल की जगह बन गया मल्टीस्टोरी बिजनेस कॉम्पलेक्स। मेरे देखते-देखते शहर के कितने ही नामी सिनेमाघर (मेफेयर, बसंत व प्रिंस आदि) दम तोड़ गए। मनोरंजन के नए आयाम... कंप्यूटर, इंटरनेट, मोबाइल तक पर तमाशा देखो। क्रिकेट मैच ने सब निगल लिया। रेडियो गुजरे वक्त की चीज हो गई। नामलेवा ट्रांजिस्टर रिक्शे और ऑटो वालों तक सिमट गए। कुश्ती, पहलवानी बाजियां... हेल विद देम। पतंग की डोर सिर्फ नन्हे हाथों में। यह आईटी युग है मियां।
शामें गुजारने को बड़े-बड़े मॉल, रेस्त्रां, कैफेटेरिया.....। शहर की छलांगें कहां से कहां पहुंच गर्ईं। पृथ्वीराज कपूर... ये कौन थे? रणवीर कपूर के परदादा.... उंह।
फ्लैशबैक। टाइम मशीन पर सवार होकर 70 साल पहले... केपी नहीं सिर्फ लल्ला। आजू-बाजू के छोरोंं के साथ सिनेमा का शौक लग गया। चार कदम पर अमीनाबाद। दो-दो सिनेमा हॉल... जगत और रॉयल (अब मेहरा)। तब कुछ लोग इन्हें खटमल टॉकीज (कुर्सियों में खटमल) भी कहते थे। तब नॉवेल्टी, रीगल (अब साहू), प्रिंस ,बसंत, कैपिटल वगैरह में बड़ों के लिए सीरियस फिल्में। अशोक कुमार सहगल, मोतीलाल, पृथ्वीराज वाली। अपन के एज ग्रुप के तर्ईं लड़ाई, मारधाड़, ढिशूम और मजाकिया वाली। दो सीन देखते ही खून गर्म.... धड़ाम ...ढिशिम ...। सबसे आगे पांच आने (आज के 30 पैसे) वाला दर्जा होता था, जिसमें कुर्सी नहींं होती थी। दरी बिछी रहती थी। इक्का-तांगा, झल्ली वाले और लफाड़िए डायलॉग पर सीटी मारते थे। उस जमाने की सबसे चर्चित डांसर थीं दुबली हसीन कुक्कू। जहां कमर को तीन बल दिए, झमाझम पैसे, अधन्ने स्टेज पर आने लगे। एक दिलजले की आवाज-रेजगारी नहीं है। इकन्नी उधार रही कुक्कू।
दस आने का सेकंड क्लास (कुर्सी पर गद्दी नहीं) उसके पीछे सवा रुपये का गद्दीदार फस्र्ट क्लास। ऊपर छज्जे पर बालकनी दो रुपये की (आज 200 रुपयों की) अपन और यार लोग दस आने वाले में डटे मार कुटाई और कॉमेडी में मस्त। नाडिया, प्रकाश, लीला गुप्ते, अंसारी, बाबूराव, शेख मुख्तार हमारे फेवरिट सितारे। ... गोप, याकूब, भगवान, आगा, मुकरी, मिर्जा, मुशर्रफ कॉमेडियन। मुमताज अली के हारमोनियम और डांस के दीवाने। (वे महमूद के पिता थे)... गोप इतने मोटे थे कि लोग उन्हें गेहूं गोदाम कहते थे। शो के बाद बाहर एक पैसे में फिल्म के गानों की किताब बिकती थी।
धार्मिक फिल्में देखने वालों का एक अलग वर्ग था... महिलाएं अधिक। एलिफिन्सन्टन (आज आनंद) और सुदर्शन (चारबाग) में इनका बोलबाला था। राम राज्य, भरत मिलाप, सती अनसुइया, भक्त प्रहलाद, हर हर महादेव आदि ने झंडे गाड़ दिए। बेहद हसीन नौजवान प्रेम अदीब (हिंदी संस्थान के निदेशक डॉ. सुधाकर अदीब के बाबा) राम बनते थे, शोभना समर्थ (नूतन की मां-काजोल की नानी) सीता, चंद्रमोहन-रावण, त्रिलोक कपूर-शंकर, निरूपा राय-पार्वती, जीवन बनते थे नारद। साहू मोदक कृष्ण की भूमिका करते थे और बाबूराम पहलवान हनुमान की। पर्दे पर सीता और राम के आते ही महिलाएं फूल, चावल और पैसे फेंक कर प्रणाम करती थीं। मुस्लिम समुदाय के परिवारों की फिल्में थीं-'नजमा’, 'नेक परवीन’, 'सलमा’, 'ईद का चांद’, 'पहली नजर’, 'शाहजहां’ वगैरह जो प्राय: नॅावेल्टी और प्रिंस (याद बाकी) में लगती थीं। मेफेयर में हमेशा अंग्रेजी फिल्में चलती थीं। उस उम्र में कहानी, डॉयलाग पल्ले नहींं पड़ते थे, फिर भी एक्शन का मजा लेने को मैंने 'बेनहुर’, 'टेन कमांडमेंट्स’, 'सैमसन डिलेला’ देख डाली। तब मेफेयर में बैठने पर जरा रोब पड़ता था।
तब आज की तरह सिनेमाघरों में डॉल्बी या स्टीरियोफोनिक साउंड सिस्टम तो था नहीं कि पूरे हॉल में आवाज गूंजे। पर्दे के पीछे दो खटारा टाइप माइक्रोफोन लगे रहते थे जो कभी भों-भों पीं-पीं करतेे थे तो कभी एकदम बंद। आगे के दर्जे से शोर उठता था। आवाज खोल बेऽऽ ...। इंटरवल में स्टेज पर दस-बीस मिनट जिंदा नाच-गाना होता था। कहते हैं कि इसमें नौशाद साहब चार आने पर तबला बजाते थे। (नौशाद के बारे में एक लंबा संस्मरण फिर कभी लिखूंगा) प्रेमनाथ (राजकपूर के साले, बीना राय के पति) की फिल्म 'शिगूफा’ तब बसंत में रिलीज हुई थी। सफेद सूट पहने प्रेमनाथ खुद इंटरवल में स्टेज पर आए। फिल्म खत्म होने पर हर दर्शक को (टिकट का अद्धा दिखाने पर ) चार-चार लड्डुओं का लिफाफा मिला था। यहां बता दूं कि बीना राय (अनारकली) लखनऊ की थीं और आईटी कॉलेज की छात्रा थीं। निर्माता किशोर साहू, इन्हें बंबई ले गए थे। साथ में दो लड़कियां और-आशा माथुर, इंदिरा पांचाल। कॉमेडियन आगा को लखनऊ की रेवडिय़ां बहुत पसंद थीं। गिफ्ट में ढेरों ले जाते थे।
बैक टू दिस लखनऊ। नदी से बहा हुआ पानी वापस नहीं लौटता। आज मैं खुद कुर्ते के टूटे बटन की तरह उस लखनऊ से बहुत दूर जा गिरा हूं। पुराने वक्त को तस्वीरें दिखाने कोई नहीं आता। अमीनाबाद में जगत की तरफ.... वह 65-70 साल पहले की नकाबपोश नाडिया याद आ जाती हैं-'हंटरवाली’, 'तूफान मेल’, 'तीरंदाज’, 'औरत’ वगैरह।
संयोग से इस वर्ष मई में भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे हुए।