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...लेकिन साहब के जलवे तो कायम हैं
शिक्षक भर्ती में सरकार की किरकिरी कराने वाले कई लोग नप गए। मगर, मुख्य सूत्रधार किस तरह बच गया, इसकी चर्चा सरगर्म है। दरअसल, भर्ती में सरकार की सबसे ज्यादा किरकिरी रिजल्ट घोषित करने के तौर-तरीके पर हुई। नतीजे आने पर परीक्षा के बीच का गोरखधंधा भी सामने आ गया। पारदर्शी और तेज भर्ती कर वाहवाही पाने की सोचने वालों की ऐसी छीछालेदर हुई, जिसकी शायद ही किसी ने कल्पना की हो। उम्मीद के हिसाब से सख्त कार्रवाई भी हुई, मगर चौंकाने वाली बात यह रही कि परीक्षा में गड़बड़ियों के जिम्मेदार तो नप गए लेकिन चयनित परीक्षार्थियों की सूची जारी करने में जिनकी वजह से सबसे ज्यादा फजीहत हुई, वे फिलहाल बचा दिए गए। ये साहब पिछली सरकार में भी नाक के बाल थे, इस सरकार में भी हैं। समझने वाले कह रहे हैं कि सिर्फ एक चार्ज से मुक्त कर बिना कोई कार्रवाई किए छोड़ना बताता है कि साहब के जलवे कायम हैं।
सियासत में इन दिनों मंदिर की एंट्री हो गई है। हम वजीर-ए-आजम या कांग्रेस मुखिया के मंदिर प्रेम की बात नहीं कर रहे। पीछे सोशलिस्ट भी नहीं हैं। साइकिल सवारों के मुखिया ने कंबोडिया की तर्ज पर विष्णु मंदिर बनवाने की बात कही तो सेकुलर मोर्चा बनाने वाले चाचा काठमांडू में भगवान पशुपतिनाथ के दर्शन करने पहुंच गए। ट्विटर पर इसकी फोटो भी शेयर की। लाल टोपी वाले एक नेता ने टिप्पणी की, पिछले कुछ वर्षों में आम लोग भले ही एजेंडे से बाहर हो रहे हों, लेकिन सियासत में मंदिर का महत्व जरूर बढ़ गया है। निजी आस्था का ढोल पीटने की परंपरा शुरू हो गई। पता नहीं, मंदिरों के नाम पर राजनीति को भगवान किस रूप में लेते हैं?
एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रदेश मुखिया हजरतगंज चौराहे पर पैदल कहीं जा रहे थे। दूसरी तरफ से आ गए और एक समाजवादी नेता, जो भतीजे के बजाय सेकुलर मोर्चा वाले चाचा के काफी करीबी माने जाते हैं। राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया भी ठहरे पुराने समाजवादी। सो, आमना-सामना हुआ तो जनाब के भीतर भी पुरानी समाजवादी लहरों ने ऐसी उछाल मारी कि दोनों ने एक-दूसरे को गले लगा लिया। यह देख कुछ के मोबाइल फोन के कैमरे भी चमक पड़े। बहरहाल! राष्ट्रीय पार्टी वाले मुखियाजी ने इस सबसे निश्चिंत समाजवादी नेता का हाथ पकड़ा और चल दिए आगे की ओर। थोड़ी देर में समाजवादी नेता के हाथ वाली डॉ. लोहिया पर किताब राष्ट्रीय पार्टी वाले प्रदेश के मुखिया के हाथ में थी। जिसने देखा उसकी समझ में नहीं आया कि सिर्फ रिश्ते हैं या किसी नए गठबंधन का संकेत।
चुनावी रंग अब सरकारी कार्यक्रमों में भी नजर आने लगा है। हाल ही राजधानी के एक अस्पताल में गरीबों को नि:शुल्क स्वास्थ्य योजना की लॉन्चिंग थी। सरकार के बड़े मंत्री गरीबों को योजना का कार्ड बांट रहे थे। कार्ड देते समय हर एक से पूछते कि यह किसने दिया है? जब कोई बता नहीं पाता तो खुद ही बताते-मोदीजी ने दिया है। उन्होंने सभी लाभार्थियों को कार्ड के साथ ही मोदीजी का नाम बताया। इसी बीच वहां खड़े लोगों में कानाफूसी शुरू हो गई, इसी तरह एक पूर्व मुख्यमंत्री भी चुनाव से पहले जनता को याद दिलाते थे कि उन्हें योजनाओं का लाभ कौन दे रहा है? चुनाव में क्या हश्र हुआ। भई, ये पब्लिक है। सब जानती है।
समाज कल्याण विभाग में सारे अधिकार एक ही अधिकारी को दे दिए गए हैं। साथ वाले बड़े परेशान हैं कोई भी योजना हो यदि पैसे से संबंधित है, तो उस पर निर्णय यही अधिकारी ले रहे हैं। यहां तक कि उनसे बड़े अधिकारियों की भी नहीं चल रही। वे जब चाहते हैं तब किसी भी बड़े अधिकारी को छुट्टी पर जाने के लिए बाध्य कर देते हैं। जल्द ही ये अधिकारी रिटायर होने वाले हैं। साथ वाले अधिकारी उनके द्वारा निपटाई जा रही सभी फाइलों को बड़े गौर से नोटिस में ले रहे हैं। अभी वह निपटा रहे हैं तो साथी अफसर रिटायरमेंट के बाद उन्हें ही निपटाने की तैयारी में जुट गए हैं। दबी जुबान कहने से नहीं चूक रहे कि अभी जो करना है कर लें। रिटायर होने के बाद पता चलेगा आटे-दाल का भाव।