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जीत और हार के बाद दो तरफ के लोगों के संवेदनाएं एक दूसरे के बिल्कुल उलट होती हैं। एक तरह जीत का जश्न होता है तो दूसरी तरफ हार की हताशा… जीतने वाला पक्ष इसे धर्म की अधर्म पर, सत्य की असत्य पर जैसी जीत बता रहा होता है लेकिन जो हारता है… वो हार पर हाहाकार मचाने लगता है।
अब भारत पाकिस्तान का मैच ही ले लीजिए। चैंपियंस ट्रॉफी में दो मैच हुए, पहले मैच में भारत जीती तो सबने जश्न मनाया लेकिन जब दूसरे मैच में टीम हार गई तो वहीं Fixing का राग अलापा जाने लगा। मोदी सरकार में मंत्री रामदास अठावले ने विराट कोहली, युवराज सिंह और महेंद्र सिंह धोनी पर मैच फिक्स करने का संदेह जताते हुए जांच की मांग की है।
रामदास अठावले हार पर सवाल उठाना उस फिक्स बहाने का परिचायक है जो है तो बहुत पुराना लेकिन आज कल बहुत सस्ता हो गया है। जीत को फिक्स बताने का कल्चर हाल ही में हमारी सोच में घुसा है। अब हम हार के कारणों के बजाय, हार के बहानों पर ज्यादा चर्चा करने लगे हैं।
IPL के फाइनल मैच को लेकर भी इसी तरह की चर्चा थी। मुंबई के छोटे से स्कोर के आगे पुणे की बल्लेबाजी का ढह जाने पर मुंबई की गेंदबाजी की तारीफ और विश्लेषण करने के बजाय पुणे की हार को फिक्स बता दिया गया। अगर फिक्स बहाने पर सबूतों का वजन रख दिया जाता तो शायद इस पर गंभीरता से सोचा जा सकता था।
ऐसा ही कुछ बीते दिनों हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद हुआ। जिसे हार मिली वो चुनावों को फिक्स बताने लगा लेकिन पिछली जीतों पर इन्हीं लोगों ने लोकतंत्र की आस्था में सिर झुकाते हुए EVM पर मत्था टेका था। हार के बाद व्यवस्था पर सवाल उठाने में जीतने वाले दल को छोड़कर लगभग सभी दलों की रजामंदी थी लेकिन साबित करने की बारी आई तो एकता में छिन्नता फैल गई।
सहूलियत के हिसाब से बदलती आस्था अपने आप सवालों के घेरे में आ जाती है। जीत को जितनी सहजता से स्वीकार किया जाता है उतनी ही सरलता से हार स्वीकार कर लेनी चाहिए। नहीं तो फैशन के हिसाब से चलने वालों को ये याद रखना चाहिए कि ट्रेंड बदलने में टाइम नहीं लगता है।