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'कड़ाही नहीं चाहती लड़ाई', सिर्फ बुद्धिमान लोग ही समझ सकत हैं इस वाक्य की गहराई

मोहनलाल मौर्य, अमर उजाला Updated Mon, 08 Oct 2018 12:41 PM IST
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पड़ोसी इसी चिंता में सूखे जा रहे हैं कि ब्रांडेड, सभ्य व संस्कार की धातु से निर्मित होने के बावजूद भी बर्तन अक्सर क्यों टकराते और बजते रहते हैं। कदाचित ही ऐसा कोई घर होगा, जहां दो बर्तन आपस में नहीं टकराते होंगे। पुरानी कहावत भी है कि घर में दो बर्तन होंगे, तो टकराएंगे भी। अक्सर नहीं, तो यदाकदा टकराते होंगे। चकला-बेलन नहीं, तो कटोरी-कटोरी लड़ती होंगी। चिमटा-चमचा भिड़ जाते होंगे। थाली-प्लेट में तकरार हो जाती होगी। और नहीं  तो चम्मच ही टांग अड़ा देती होगी। बड़े से बड़े घरों के बर्तनों में भी नोकझोंक तो हो ही जाती है। यह भी सच है कि कई घरों के बर्तनों में सुबह कलह  तो शाम को सुलह भी हो जाती है।

मेरे पड़ोसी के बर्तन ब्रांडेड होते हुए भी अक्सर टकराते रहते हैं। टकराएंगे तो बजेंगे भी। बजेंगे तो आवाज भी होगी। आवाज होगी तो पड़ोसी भी  सुनेंगे। सुनेंगे तो अच्छी-बुरी बातों के संग झूमेंगे भी। झूमेंगे तो  गाएंगे भी। फिर चाहे सुर बेसुरा ही क्यों न निकले? तब तक गाते रहेंगे, जब  तक आवाज ब्रांडेड के ब्रांड एंबेसडर के कानों तक नहीं पहुंच जाएं। ब्रांड  एंबेसडर के कानों तक पहुंचाने का अभिप्राय है कि आपने जिस तरह से इश्तहार  में बताया था वैसा नहीं निकला। बतौर गारंटी पीरियड में ही चमक में धमक पड़  रही है। तुम्हारे सभ्य व संस्कार धातु से निर्मित बर्तन को समझाने के  डिटर्जेंट से मांजते हैं, तो कुपित दाग छोड़ने लगते हैं। जिसके बर्तन हैं, उसे कतई गिला-शिकवा नहीं। उसके पड़ोसी इसी चिंता में सूखे जा रहे हैं कि ब्रांडेड, सभ्य व  संस्कार की धातु से निर्मित होने के बावजूद भी बर्तन अक्सर क्यों टकराते व बजते रहते हैं?

आपसी टकराव की वजह  क्या है? बेवजह भेजा फ्राई करने वाले पड़ोसी से अच्छा पड़ोसी वही है, जो अपनी वजह के बजाय पड़ोसी की वजह को ढूंढने में लगा रहता है। यह तो हम भी  जानते हैं बेवजह क्यों बजेंगे? कोई न कोई वजह है, तभी तो उनकी चम्मच भी कड़ाही पर हावी हो जाती है। जबकि कड़ाही आग में जलकर सब बर्तनों का पेट भरती है। फिर भी उनके सारे बर्तन उसी को कोसते रहते हैं। इस कड़ाही से तीन और बड़ी कड़ाही हैं, उन्हें कोई कुछ नहीं कहता। यह उनके घर की सबसे छोटी  कड़ाही है। आकार-विकार में नहीं। उम्र में छोटी है। जब से यह आई है, आए दिन गृहयुद्ध होता ही रहता है। पर जहां से यह आई है, उनके सात पीढ़ी में भी  बुराई की बू तक नहीं और इसके सिर पर रोज बुराई का ठीकरा फूटता है। सब्जी जल  गई तो, सब्जी में पानी ज्यादा हो गया तो, चमचे ने अपना काम नहीं किया तो  ठीकरा इसी के माथे पर फूटेगा। गनीमत यह है कि कड़ाही लड़ाई नहीं चाहती।  अन्यथा अब से पहले रक्त की नदियां बह जाती और न जाने कितने ही शूरवीर बर्तन  शहीद हो जाते थे। कड़ाही को अड़ोसन-पड़ोसन बहकाती भी खूब हैं। अच्छे- खासे  लोहे से निर्मित है। फिर भी जुल्म-सितम सह रही है। घुटन भरी जिंदगी जी रही  है। यह भी कोई जीना है।

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