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कई बार उपयुक्त शब्द न मिलने से बड़ी कठिनाई होती है। कोश भी मदद नहीं करते; क्योंकि जब उस आशय का शब्द ही नहीं है तो कोश कहां से लाकर देगा। तब मजबूरी में आकर एक नया शब्द गढ़ना पड़ता है। धीरे-धीरे चल जाता है। यह समस्या हर लल्लू जगधर के सम्मुख नहीं आती मगर हम जैसे प्रायः इस बारे में परेशान रहते हैं।
कुछ ऐसी स्थितियां हैं जो अपने लिए एक शब्द चाहती हैं। जैसे आप खाना खाने बैठे। एक कौर मुंह में रख आप क्रोध से पत्नी की ओर देखते हैं और कहते हैं, ''यह खाना है ? इसे खाना कहते हैं ?' और आप मुंह का कौर थूक देते हैं। पत्नी कहती है, ''मैं क्या करूं, आज नौकर नहीं आया। अब जैसा बना है वैसा खा लो। लाओ गरम कर दूं। अथवा वह कहेगी, 'हां, तुम्हें घर का खाना क्यों अच्छा लगेगा, उस चुड़ैल के यहां खाकर जो आते हो' आदि। मगर प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न शब्द का है। पति की परेशानी है- उपयुक्त शब्द का अभाव। अर्थात उस भोजन अथना खाने के लिए जो कदापि सुस्वादु नहीं है, कौन सा शब्द दिया जाए? फिर वह अपने बुद्धि-कोश से एक शब्द लाता है 'भूसा' और पत्नी की परोसी थाली पर चस्पा कर देता है, "मैं भूसा नहीं खाऊंगा' या इसी किस्म का कोई वाक्य।
अब आप सात वर्ष पूर्व चलिए अर्थात इन दोनों के विवाह के एक माह पूर्व। लड़की कहती है, ''देखिए, मुझे खाना-वाना बनाना नहीं आता। न मुझे नमक-मिर्च का हिसाब पता है और न पकाना आता है। मुझसे रोटियां जल जाती हैं। आप कहेंगे कैसी बीवी मिली है।'' इस पर लड़का उसकी ओर यों देखता है जैसे वह सच न बोल मजाक कर रही हो और कहता है, ''तुम तो भूसा भी रख दोगी तो खा लेंगे, हम तो प्रेम के भूखे हैं।'' और उसे पास खींच लेता है आदि।
समस्या है शब्द की। सुघड़ पत्नी की बनाई सुस्वादु खाद्य सामग्री के लिए शब्द है भोजन। परंतु जब प्रेमिका प्लेट में कचरा परोसे या पत्नी ऐसा करे तो उसके लिए उपयुक्त शब्द नहीं है। कई ऐसी स्थितियां हैं जब एक शब्द की दरकार होती है। पार्टी में एक परिचित महिला या कन्या आयी है, मगर अभी मिली नहीं है। आप उस क्षण की प्रतीक्षा में हैं, जब वह आपके समीप से गुजरे और मुस्कुराये। जवाब में आप भी मुस्करायें। ऐसी स्थिति उत्पन्न करने के लिए हाथ में आईसक्रीम ले आप बार-बार कोण बदलते हैं। बड़े सहज अंदाज से इस ओर से उस ओर आते-जाते हैं। मिल-जुल भी रहे हैं, मगर वह कोमल क्रॉसिंग नहीं हो पा रही जिसकी प्रतीक्षा है। बताइए, इस हालत को बयान करने के लिए कौन सा शब्द है? है कोई ? नहीं। बस यहीं हिंदी अखर जाती है हम प्रबुद्ध जनों को। मैं एक शब्द बनाता हूं, टुकलाना। जैसे प्रशांत जी पूरे समय मिस वर्मा के लिए टुकलाते रहे। अथवा प्रशांत जी ने बड़ा टुकलाया मगर जालिम ने आंख उठाकर नहीं देखा।
आम भारतवासी जब रात को सोता है तब उसे एक संदेह रह-रहकर सताता है कि बिल्ली दूध पी जाएगी। वह दूध अलमारी में बंद कर देता है। मगर अब उसे यह शक सता रहा है कि एक बार बिल्ली आएगी जरूर कोशिश करने। वह पत्नी से बातें कर रहा है। पत्नी उससे। मगर दोनों का ध्यान बिल्ली पर है। गिलास में रखे पाव-भर दूध पर जो खतरा है वह मानो प्राणों का खतरा बन गया है। बताइए, भारतीय जीवन में रोज आनेवाली इस मनः स्थिति के लिए कौन सा शब्द है हिंदी में ? है कोई ? मैंने एक शब्द गढ़ा है, बिल्लौसना। जैसे नौ बजे के बाद मैं कोई दस बजे तक बिल्लौसता रहा, फिर नींद आ गयी अथवा डॉक्टर साहब मेरी पत्नी रात को बहुत बिल्लौसती है, कोई दवा दीजिए। अथवा यह विज्ञापन-पंक्ति, 'गुलजार रेफ्रिजरेटर खरीदिए और रात के बिल्लौसने से मुक्ति पाइए।
अनेक बातें है जिनके लिए आज शब्द नहीं हैं। नींद में दांत पीसना, बैठे-बैठे यह हिसाब मन ही मन लगाना कि पिताजी मरेंगे तब तब क्रिया-कर्म में कितना खर्च बैठ जाएगा। यह एहसास कि जिस बड़े रेस्तरां में हम बैठे हैं, यहां बिल ज्यादा आएगा, शत्रु की पत्नी के सुंदर होने की एक प्रशंसाभरी जलन, प्रेम करते समय यह भय कि लड़की का भाई किसी दिन मारेगा, वे सारे उपाय जिनसे बाल काले लगें, बैंक से रुपया निकालते समय क्लर्क की ओर याचना-भरी व्यर्थ की दृष्टि, भाषण देते हुए एक क्षण को यह डर कि कहीं लोग मुझे मूर्ख तो नहीं समझ रहे, बातचीत का कोई विषय न होने पर भी अपने ससुर के सम्मुख सोफे पर बैठे रहना, रचना भेजते समय लौट आने की शंका, किसी बोर को अपने घर की ओर आता देख मन में उठा पहला भाव, मेहमान को अपने कैक्टसों से प्रभावित करने का प्रयास, आटा पिसवाकर लौटते समय परिचितों से नजरें बचाना, गर्दन तिरछी कर पीछे की सीट पर बैठी लड़कियों को अपना प्रोफाइन देना, कॉफी हाउस में सच बोलते सयम आशंका से चारों ओर देखना, किसी मित्र अथवा कार्यक्रम की तलाश जिसके कारण घर जल्दी जाने से बचें, आदि बातों के लिए कोई शब्द नहीं है, जिसे कहने से ही अर्थ खुल जाए। हिंदी बड़ी समृद्ध भाषा है, जिसमें सिटपिटाना जैसे शब्द हैं; मगर बदलते समय के साथ हर भाषा को नयी दुर्दशाओं के अनुकूल शब्दों की आवश्यकता होती है। मैं किसी अध्यक्ष पद से नहीं बोल रहा फिर भी कहना चाहूंगा कि हिंदी को अभी काफी विकास करना है।
मुंह से नहीं कहें मगर किसी मित्र के यहां जाते समय यह इच्छा रही हो कि वहां चाय मिलेगी। मैं कहूंगा वे यहां चाने आये थे। चाने अर्थात चाय पीने की इच्छा से आने। या उक्त इच्छा से जाने। मैं वहां जाने गया था। सफल हुआ। इसमें निमंत्रण नहीं है। भावना को शब्द दिया गया है। मनुष्य प्रगति करता है साथ में भाषा प्रगति करनी चाहिए। अच्छा, कुलकुलाना शब्द का का क्या मतलब है, आप समझते हैं ? किसी कार्यक्रम में जो बोर हो अथवा हमारे शत्रुओं द्वारा आयोजित हो और वहां हम निमंत्रण पाकर शरीफ मुद्रा में बैठे हों और तभी वहां हूटिंग होने लगे। जरा कल्पना कीजिए। शराफत का चेहरा बनाने के कारण हम स्वयं हूटिंग नहीं कर रहे, मगर दूसरों के द्वारा हूटिंग होता देख प्रसन्न हैं। दांत निपोर कर पीछे देख रहे हैं, आंखों में चमक आ गयी है, कामना कर रहे हैं कि और हूटिंग हो, खूब हूटिंग हो। शत्रु का कार्यक्रम है, हूट होना ही चाहिए। मैं कहूंगा आप 'कुलकुला' रहे हैं। बाद में जब चर्चा चलेगी, मैं बताऊंगा कि कुछ लोग हूट कर रहे थे, कुलकुला रहे थे। आपका नाम लेकर कहूंगा कि आपने हूट तो नहीं किया, मगर कुलकुलाये खूब। कभी आप मुझे इस स्थिति में देखें तो आप कहिए। सवाल यह है मित्र कि शब्द चलना चाहिए। इसी में भाषा की प्रगति है।