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शरद जोशी का व्यंग्यः भोंपू बजाने की लुप्त कला

शरद जोशी Updated Sat, 03 Mar 2018 05:11 PM IST
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Sharad Joshi
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विस्तार

शरद जोशी का ये लेख आपको अचरज में डाल सकता है। क्योंकि भोंपू का ये मधुर संगीत न तो आपने पहले कभी सुना होगा और न ही कहीं पढ़ा होगा। शरद जोशी ने ये लेख 1985 में लिखा था, जोकि उनकी 100 बेहतरीन रचनाओं वाली किताब ‘यथासम्भव’ (भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित) से लिया गया है। 

मोटर का भोंगा या भोंपू बजाने की कला अब धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। वह बात नहीं रही है। एक जमाना था देश में मोटर का ड्राइवर भोंपू को एक वाद्य के रुप में लेता था और वातावरण में ऐसी स्वरलहरी गूंजती थी कि दूर-दूर का पैसेंजर खिंचता चला आता था। ये छोटा सा वाद्य, जो औद्योगिक युग की देन था, हारमोनियम सा सौभाग्ययशाली तो नहीं था, जो क्याँ क्याँ करता सितार, सारंगी की ऊंची खानदानी जमात में जा बैठता पर अपनी जगह स्थिर रहकर इसने भी संगीत की सेवा की। भोंपू महफिल के बाहर ही रह गया, अंदर नहीं जा पाया। मोटर से जुड़ा रहने के कारण इसकी सीमा निश्चित थी। भोंपू बजाने के कार्यक्रम नियमित तो नहीं चलते थे, पर फिर भी वे जगह-जगह बजते थे और खूब बजते थे, जिसकी जनता के बड़े वर्ग पर सुखद प्रतिक्रिया होती थी। 

आज से 15-20 वर्ष पूर्व तक देश में ऐसे ड्राईवर थे, जिन्हें भोंपू बजाने के गुणों के कारण ही विदेश भेजकर यश और मुद्रा लूटी जा सकती थी। पर जैसा कि होता है उच्च वर्ग का सांस्कृतिक बोध आम जनवाद्योंं को ग्रहण नहीं करता था। और इसी कारण मोटर ड्राइवर कभी संगीत साधक के रुप में नहीं माने गये। उच्च वर्ग ने मोटरें खरीदीं पर उसके भोंगा संगीत को कभी ग्रहण नहीं कर पाया। यह काम किया जनता ने। भोंपू को लंबे शोरगुल के बाद धमनी से बजने वाले वाद्यों में स्थान मिल सका। वास्तव में भोंगा या भोंपू एक गतिशील वाद्य है और संभवत: अपने ढंग का एकमात्र वाद्य है, जो चलते हुए बजाया जाता है। लंबी-लंबी सड़कों से गुजरती पैंसेजर बसों के ड्राइवर इसे नदी, पहाड़, जंगल और बिखरी बस्तियों को सुनाया करते थे। एक लहर सी उठती थी। भों....पू...पु.....भों.....पु.....पु...भों.... और गहरे अंतर में एक वेदना सी उमड़ आती थी। फिर एक थिरकन सी आरंभ होती थी। प्रवीण ड्राइवर अपनी हथेली से धीरे-धीरे थाप सी लगाते और विचित्र सी गूंज वातावरण को नशीला बना देती। जब मोड़ आता मानो आगत की आशंका संगीतकार को कंपा देती। और भोंपू बजता  पूंह… पूंह… भों… पूंह! धीरे-धीरे वो मोड़ घूम जाती और तब गांव नजर आता। निमंत्रण देता था गांव। भों का स्वर ऐसे गूंजता जैसे कोई बरसो का बिछड़ा ललककर मिल रहा हो। क्या दिन थे वे। 20 मील प्रति घंटे की रफ्तार से उस जमाने की कोई बेडफोर्ड, मॉरिस और मर्सिडीज चलती थीं। और ध्वनिविद् ड्राइवर पचास मील के सफर में ढाई तीन घंटे का भोंगा कार्यक्रम देते थे कि टिकट खरीदकर बैठे श्रोता दिए गए से ज्यादा ही पाता था। 

मुझे अच्छी तरह याद है, सन् पैतीस छत्तीस का वो जमाना, जब बन्ने खां ड्राइवर उज्जैन-इंदौर के बीच चला करते थे और भोंपू बजाने की कला अपने उच्च शिखर पर थी। बन्ने खां लखनऊ कानपुर के बीच चलने वाली राधेश्याम बस सर्विस वाले प्रसिद्ध उस्ताद गुलशेर खां सन्दीवली के शागिर्द थे। और ड्राइवरी के साथ भोंपू बजाने में महारत बन्ने खां ने इनके ही चरणों में बैठकर प्राप्त की।  बन्ने खां को बचपन से ही मोटर का भोंपू बजाने का शौक था और इनके हामिद खां जो पंचर जोड़ने में सारे यूपी में अपना सानी नहीं रखते थे, अक्सर बालक बन्ने को गोद में उठाकर भोंपू बजाने का अवसर देते। बन्ने में प्रतिभा थी और छोटी सी उम्र में जब उनकी हथेलियां नाजुक थीं, भोंपू पर उसने ऐसा कब्जा जमा लिया कि भोंपू कला के पारखियों ने तभी कह दिया था कि एक दिन बन्ने बहुत अच्छा ड्राइवर बनेगा और इसका भोंपू मीलों दूर तक सुनाई देगा। और हुआ भी ऐसा ही। 

बन्ने स्कूल में जाकर अंगूठा लगाना ही सीख पाए थे कि हामिद खां ने उन्हें वहां से छुड़ाकर साहब की शार्गिदी में सौंप दिया। गुलेशर ने तीन साल तक तो बन्ने को स्टियरिंग नहीं छूने दिया और सिर्फ गाड़ी पुंछवाते रहे, पर बन्ने भी धुन का पक्का था और धीरे-धीरे उसने ड्राइवरी और भोंपू बजाना दोनों सीख लिया। मैंने जब उन्हें पहली बार देखा, वे इस क्षेत्र में अपनी जगह बना चुके थे। उनकी बस में बैठ उज्जैन से इंदौर जाते समय मैंने उनका कार्यक्रम पहली बार सुना, तो वह वास्तव में एक स्वर्गिक अनुभव था। उज्जैन बस स्टैंड पर उन्होंने अलाप लिया और फ्रीगंज का पुल पार करने पर बहुत सधी उंगलियों और हथेली से वे समां बांध चुके थे। डेढ़ घंटे में हम लोग सांवेर जाकर लगे, तब मैंने उन्हें बधाई दी कि ऐसा भोंपू न भूतो न भविष्यति । वे अपने उस्ताद की बात बताने लगे, जिनका भोंपू सुनने यूपी के बड़े बड़े जमींदार-जागीरदार आया करते थे।

अपने जीवन में यूं तो कई मशहूर मारूफ भोंपूबाज ड्राइवरों को सुनने का मौका मिला पर बन्ने सी गमक मैंने कभी नहीं सुनी। साफे में सज-धजकर और भोंपू को प्रणाम कर उनका गाड़ी स्टार्ट करना, भोंपू बजाने का पूर्व वातावरण शांत करने के लिए रौब से पीछे फिरकर पैंसेजरों को देखना, छोटे से आइने को एडजस्ट करना और भोंपू बजाते हुए इतने खो जाना कि सामने भीड़ है भी कि नहीं, इसका ध्यान नहीं रखना, मुझे अच्छी तरह याद है। बन्ने खां अपने उस्ताद के इस कथन को, कि अच्छा भोंपूकार होने के लिए वक्त से खाना, वक्त से सोना वर्जिश और संयम से रहना जरूरी है, जीवन भर मानते रहे। इतने वर्षों के बाद भी उनकी भोंपू की याद मेरे दिल में यूं है, जैसे अभी सड़क पर कहीं बजा हो।

अब न वैसे मोटरें रहीं, न वैसे मोटर चलाने वाले। भोंपू बजाने की कला धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। बिजली के हार्न ने इस कला को समाप्त कर दिया। भोंपू के प्रति जो सम्मान का भाव था, अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। सारी सड़कें संगीत विहिन हो गई हैं। और उसकी जगह ले ली… पी-पें-पें ने जो निहायत असांस्कृतिक लगती है। सरकार और आकाशवाणी चाहे तो कुछ कर सकते हैं। आज भी देश में कई पुराने अच्छे भोंपू वादक हैं, जो यहां-वहां बिखरे पड़े हैं, जिन्हें चाहें तो टेप रिकॉर्ड किया जा सकता है। भोंपू बनाने की अखिल भारतीय प्रतियोगिताएं आयोजित कर और बड़ी मोटरों में भोंपू लगाना अनिवार्य कर इस कला को पुर्नजीवित किया जा सकता है। अभी भी देर नहीं हुई है। फिर से इस देश में भोंपू गूंज सकते हैं और लुप्त कला को जीवन दिया जा सकता है। 

कुछ दिन हुए बन्ने खां से फिर मुलाकात हो गई। कमर झुक गई है। बुढ़ापा अपने आप में मर्ज होता है। बेचारे खटिया से लग गए हैं। मोटर चला नहीं पाते लेकिन फिर भी भोंपू बजाने का शौक कम नहीं हुआ है। खटिया से भोंपू बांध रखा है। जब तबीयत होती है तो रागिनी छेड़ देते हैं.. भौं… पूंह… भौं...पूं..पु...भौं...ओं… । लगता है किसी अंजान रास्ते पर खोई हुई पैंसेजर बस चली आ रही है, शाम डूब रही है और रास्ता लंबा है। मन खो जाता है। अपनी खटिया पर लेटे लेटे ही बन्ने खां ने इस बुढ़ापे में वह भोंपू बजाया कि तबीयत खुश हो गई। प्रोग्राम खत्म करने के पूर्व द्रुतलय में उस्ताद ने मजा ला दिया। मैंने कहा, ‘बन्ने खां वल्लाह क्या बात है’ ! कहने लगे, हुजूर की इनायत है!! 

बन्ने खां ने बताया कि राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए वह मुफ्त में भोंपू बजाकर सारी अर्जित राशि भेजने को तैयार थे, पर कलेक्टर ने मौका नहीं दिया। बड़े दुखी थे। कहने लगे भोंपू को यथोचित सम्मान नहीं मिल रहा। इतना प्रचार होने पर भी पारखी कम है। मैं चुप रह गया और थोड़ी देर बाद चला आया। 

मोहल्ले के कोने पर सुना, निराश बन्ने ने फिर भोंपू बजाना शूरू कर दिया था… पु...पु...भों...पु...पु...भों… दुख के दिन अब बीतत नाहीं।
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