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चुनावों पर शरद जोशी का लयबद्ध व्यंग्य: चुनाव गीतिका सरलार्थ

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Wed, 17 Jan 2018 07:16 PM IST
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Sharad Joshi Satire Chunaav Geetika Sarlaarth
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विस्तार

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था। 

आज तुम रस-गंध हीन पुष्प के समान कुम्हलाये हुए-से क्यों हो मित्र! तुम पर कौन बाधा आ पड़ी है? तुम राजधानी के सुखद आवास को छोड़कर कहां जा रहे हो? तुम्हारी यह लपटती-झपटती धोती, जीर्ण-शीर्ण-सा कुर्ता और आंदोलनों के जमाने की स्मृति दिलाने वाला वास्कट सब कुछ अति ही निराला एवं भिन्न है। आज तुम वैसे नहीं लग रहे हो, जैसे कल तक थे। तुम्हारा मुखसरसिज आज जाने क्यों एक चिंताग्रस्त नेता का बोध करा रहा है। कौन-सा अमंगल तुम्हें उदास किए है? इस दिशा में किस ठौर पर जा रहे हो। सघन कान्तारों में किसका अन्वेषण करने का लक्ष्य है आज?

(1)
कवि ने निर्वाचन की वेला में चतुर नेता द्वारा अपनी सारी सुध-बुध खो बैठने की स्थिति का चित्रण किया है। वह कहता है कि अपने चुनाव-क्षेत्र की ओर सत्वर गति से जाता हुआ आज वह पहचानने में नहीं आ रहा।

(2)
इस बार चुनाव जल्दी लग गये। क्या करें, निठुर इंदिरा से हमारा सुख देखा न गया। उसने हमें समय बीतने से पहले ही निगोड़ी जनता में पठवा दिया।
हाय! अभी तो स्वार्थों के चकवा-चकवी जी-भर मिल नहीं पाये थे। निजी सुखों की कमल जोड़ी से भ्रष्ट पवन मधुर छेड़छाड़ कर ही रहा था। अभी-अभी तो  यह सेवाभावी तन डनलपिलो के मनोहर पाश में सिमटा ही था कि समय के निर्दयी मुर्गे ने वांग देकर कहा कि चुनाव आ गये ! कवि कहते हैं कि एक और दलबदल करने की इच्छा नेता के ह्रदय में शेष ही थी कि हाय देखो यह कैसी अघट घटी। बेचारे क्या करें कुछ समझ नहीं पड़ रहा। 

(3)
अय सखी, आज चहुं दिशि यह शोर कैसा? बकुलों के समान श्वेत परिधान धारे कार्यकर्ता जनों की पांत कहां प्रयाण कर रही है? रसिक जन आज रसिकता छोड़ राजनीति की चर्चा में काहे मगन हैं? क्या श्रृंगार अब रसराज नहीं रहा? 

फेरिआं लगाकर तरुणियों के सौंदर्य का अंदाज लगाने वाले वे भ्रमरवृन्द आज उन्हें नम्र स्वरों में 'बहनजी' के आदरसूचक शब्दों में क्यों संबोधित कर रहे हैं? सदा सहमत होने वाली प्रौढ़ाएं भी आज मानिनी मुग्धाओं के समान रूठी हुई क्यों लग रही हैं? मेरा प्रीतम आज इतनी सुबह मुझे सोता छोड़ नारों से मंडित पोस्टरों का बण्डल बगल में दाबे कहां चल दिया?

कवि कहते हैं कि देश में अकस्मात चुनाव आ जाने से पुर की सुंदरियां परस्पर जिज्ञासा कर वास्तविकता जानने को बड़ी आकुल हैं। 

(4)
सुन सखी, आज मुझे वह फिर दिखाई दिया जो पिछली बेर गलियों में आकर भाषण दे गया? मीठी-मीठी बातों का धनी, वह चतुर नट जिसने फुसलाकर हमारा वोट हर लिया। आज मुझे सुबह की वेला वह फिर दिखाई दिया।

मैं नहाई हुई आंगन में थी। निचोड़ने पर मेरे बालों से जलधारा यों झर रही थी मानों मोती झर रहे हों। वस्त्र भीगे हुए थे। मैं ठिठुरती धूप में बैठी हुई थी। क्या कहूं, तभी उस निर्लज्ज ने मुझे देखा और मैंने उसे। वह ऐसे ललचाये नेत्रों से मुझे देख रहा था मानो मुझसे कुछ चाह रहा हो।

कवि कहते हैं कि कौन नहीं जानता कि चुनाव की वेला में सुंदरियां वोट मात्र रह जाती हैं। चतुर नट उनसे बस वही मांगता है। 

(5)
चुनाव-श्रम-जल-कण-झलमल 
जनता के आलिंगन से दुर्गंधित वक्ष देश
आश्वासन रत, स्वीकृतियों में पशोपेश

प्रथम पंक्ति से तात्पर्य प्रचार-कार्य की व्यस्तता के परिश्रम से शरीर पर आयी पसीने की बूंदों से है जो झलमला रही हैं। चुनाव के समय जनता से बार-बार आलिंगन करने की मजबूरी के कारण नेता के वक्ष-देश (कुर्ता, वास्कट आदि के भाग) दुर्गंधित हो गये थे। वह आश्वासन देता था, पर स्वीकृतियों में पशोपेश रहता था।

पद की शेष पंक्तियां, जो नेता के सार्वजनिक चरित्र के ऐसे विरोधाभासों का परिचय देती हैं, सरल हैं। (पसोपेश के प्रयोग से सिद्ध होता है कि कवि अरबी-फारसी का अच्छा ज्ञाता है।)

(6)
बहुत-बहुत कर अनुनय 
पहले भी ले गये थे वोट ओ स्वार्थ ह्रदय 
बहुविध चाटु वचन
अवसर-प्रेरित सिद्धांत रचन
तव तकनीक जनमोहन 
गमन करो सत्वर इस बार
अन्य दिशा सदय 
अर्थात् हे स्वार्थी ह्रदय वाले नेता, पिछली बार भी तुम बहुत विनय कर वोट ले गए थे। अनेक प्रकार से मन को प्रसन्न करने वाले वचन बोलने वाले तुम अवसर से प्रेरित सिद्धांत रचने में प्रवीण हो अर्थात् जैसा मौका देखते हो वैसी बात करते हो। तुम्हारी शैली जनता को मोहित करती है, पर जहां तक मेरा प्रश्न है, तुम यहां से जल्दी खिसको। दया करो, कहीं और जाओ।

(7)
रात-रात भर हुई जगायी, लाल-लाल भये लोचन 
कैसे भरमाएं वोटर को, सखा सहित रत सोचन 
जाओ शर्मा, जाओ वर्मा, शोधो अपनी-अपनी जाति 
मैं हूं जातिवाद से ऊपर, दुहराओ रह-रह यह ख्याति।
तात्पर्य स्पष्ट है। चुनाव-काल में रात-भर जगने से नेता की आंखें लाल हो गयी हैं अर्थात् वह क्रोधित है। उस दिन  मित्रों के साथ बैठा यही सोच रहा था कि किस भांति जनता को चुनाव हेतु फुसलाकर विजय प्राप्त कर ली जाए। वह कार्यकर्ताओं से, जिनके नाम शर्मा-वर्मा थे, कह रहा था कि तुम जाकर अपनी-अपनी जाति से मुझे वोट देने के लिए संपर्क साधो और प्रचार करो कि मैं जातिवाद से ऊपर हूं। पद में नेता के चरित्र का विरोधाभास दर्शाया गया है। शेष पंक्तियां सरल हैं।

(8)
निशि व्यतीत हुई। ओ, कंजल-मलिन नयनों वाली कामिनी उठ। पोलिंग बूथों से राजनीति का कंत तुझे टेर रहा है।

चुनाव के कटे-फटे पोस्टरों से गृहों की दीवारें ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानो किसी सुंदरी के तन पर नख-क्षत हों। प्रचार बंद हो गया है। सभी नज मतदान हेतु केन्द्रों की ओर सत्वर गति से जा रहे हैं। ऐसे में हे गजगामिनी, तू गमन-विलाम्बिनी होने की कलंकिनी मत बन। 
 
(9)
अब वह अपनी क्रीड़ा-भूमि को छोड़ जा रहा है। वह चुनाव जीत गया है और व्यर्थ के मोहों से उसने मुक्ति प्राप्त कर ली है।

उसने जनता से किए अपने वादे यहीं की गन्दी नालियों में फेंक दिए हैं। अपने नारों की स्मृति मात्र से वह अब उब जाता है। अब अपने पोस्टरों की ओर वह हंसकर उपेक्षा से अवलोकता है, उसके घोषणा-पत्र मार्ग में बिखरे हुए हैं जिन्हें रौंदता हुआ वह राजधानी लौट रहा है।

कवि कहता है कि चुनाव तो चार दिन की चांदनी होता है, जिसमें जनता चाहे इतरा ले, मगर बाद में तो वही अन्धकार होता है।

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