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शरद जोशी का मजेदार व्यंग्य: महानगर में हिंदी करने वाले

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Sat, 13 Jan 2018 08:52 PM IST
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Sharad Joshi satire Mahanagar mein Hindi karne wale
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विस्तार

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था। 

गादियां अतिरिक्त नरम थीं। उन पर गोल तकिये थे, जिन पर हमारी तनी हुई साहित्यिक रीढ़ सहारा खोज रही थी। नीचे कालीन थे। कालीन ही दीवारों पर लगे थे। वे छत तक चले जाते, मगर वहां झाड़-फानूस थे, जो अपनी नियति ढोते लटके हुए थे। 

"मुझे डर लग रहा है। कहीं ये झाड़-फानूस मेरे सिर पर न गिर पड़ें।" मैंने धीरे से दादू से कहा।

"जहां तुम बैठे हो यहां हिंदी का बड़ा-बड़ा साहित्यकार बैठ चुका है। उनके सिर पर न गिरे तो तुम्हारे सिर पर क्या गिरेंगे?"

मैंने ससम्मान सिर झुका लिया। नम्रता के सहारे पहले भी खोपड़ी बची है। आज भी बचेगी।

सामने बैठे उन वयोवृद्ध सज्जन ने कहा,"हम सन् तीस से इस महासागर में हिंदी कर रहे हैं। उस जमाने में हम अकेले थे जो यहां हिंदी करते थे। बड़े-बड़े घरों में संस्कार डालने का चक्कर था। हिंदी सेवा थी हो जाती, बाहर से आने वाले लेखकों को माल मिल जाता।"

फ्लैशबैक की घिसी-पुरानी शैली मेरे अंतर में कौंधी और मैंने उसी कालीन पर अपने पूर्वजों को गुलाब-जामुन खाते महसूस किया। तभी दो नौकरों का नेतृत्व करते हुए कोठी के हिंदी-प्रेमी मालिक कालीनों से सने उस चिकने कक्ष में प्रविष्ट हुए। चेहरे पर 'हें हें' भाव। पूर्णतः गद्गदम! "आप्को जास्ती गर्मी तो नाहीं लग्ता? एक पंखा और लग्वाएं। बात यह है हमारा ऐरकंडीसन इदर खराब हो गया है।" वे बोले।

"रहने दीजिये। इस वक्त पूरे साहित्य का एयरकंडीसन खराब है।" दादू ने कहा 

बहुत सारी 'हें हें' उठीं और झाड़-फानूसों से लटककर झूमनें लगीं,"आप लोग बहुत जोक का साहित्य लिखते हैं हाथरसी जी के माफक।"

मैंने अत्यंत धीमे स्वर में दादू से कहा कि यदि इस कोठी में कुआं हो तो मैं डूबना चाहूंगा। दादू बोले,"इतना शीघ्र संभव नहीं होगा। पहले तुम्हारा लिखा इतिहास डूबेगा, तुम बाद में।" मैं मन मारकर बैठ गया।

"क्या बोला आपस में आप लोक? हमें भी सुनाइए। जरुर कोई ऊंचा लिटररी चीज बोला होगा। बड़ा साहित्यकार का ये विसेसता है कि वो साधारण डायलॉग में लिटरेचर मार देता है।" हिंदी-प्रेमी मालिक ने नौकरों से ली मिठाई की प्लेट बढ़ाते हुए कहा,"लीजिए।"

महानगर में वर्षों से हिंदी करने वाले वयोवृद्ध सज्जन, चाताकजी ने मिठाइयों की प्लेट की ओर यों रसमय द्रष्टि से देखा मानो बाईस वर्षीय जन सत्रह वर्षीया जनी की तरफ देखें। मुझे बोले,"शुद्ध माल है, घर का बना है। उग्र जी को इस घर की जलेबियां बहुत पसंद थीं। इनके पिताजी से कहा करते थे- तुम गंदे आदमी हो, मगर तुम्हारा जलेबी वाला गुनी है। उसके कारण मैं यहां आता हूं। बड़ा गहरा मजाक करते थे।"

"मर गया वह, नहीं आपको भी खिलवाते।" हिंदी-प्रेमी कोठी के मालिक मुझसे बोलते। चातकजी के झुर्रिमाय मुखमंडल पर उदासी उतर आयी। उग्र जी की याद में नही, जलेबी बनाने वाले की याद में। अंतर की पीड़ा को इमरती के टुकड़े से दाबते हुए बोले,"हिंदी सेवा का क्या युग था वह! एक बार छनती थी तब दो छटांक पिश्ता डलता था।" 

"अभी तो आप कुछ दिनों यहां वास कीजिएगा? होटल में ठहरे हैं?" कालीन सहलाते वे बोले।

"जी हां।" मैंने कहा। दादू ने मेरी ओर हिकारत से देखा।

"होटल में क्यों? यहीं आ जाइए। ऊपर का माला खाली है। चार-छः माह किराए से उठाने का इरादा नहीं। मोजाइक का काम करवाना है। वहीं बैठ चिंतन-मनन चलाते रहिए अपना। चाय-नाश्ता-भोजन नौकर ला देंगे। हमारे रसोड़े में नौकर-चाकर मिला तीस लोक का खाना रोज बनता है। एकाध साहित्यकार बढ़ जाए, फर्क नहीं पड़ता। यहीं आ जाइए।" फिर कुछ गहरा सोच स्वयं को सुधारते हुए बोले,"मगर रहने दीजिए, बाथ-रुम का कष्ट हो जाएगा। ऊपर माला का बाथ-रुम हमने स्टोर बना दिया है। इस माला का परिवार के उपयोग के लिए है। नीचे का गन्दा है। नौकरों के लिए। आप जैसे बड़े साहित्यकार को वहां जाना शोभा नहीं देगा।"

"वाह,वाह! आपकी उदारता में साहित्य-सेवा का भाव है, आपकी विवशता में भी साहित्यकार का सम्मान छुपा है।" चातकजी ने गदगद स्वर में कहा।

कोठी-मालिक हिंदी-प्रेमी ने जेब से लिफाफा निकलकर मेरी ओर बढ़ाया,"लीजिए। आप यहां ठहरते तो बच्चों का हिंदी इम्प्रूव हो जाता, जैसा पिताजी के समय बड़े कवियों का बात करने का स्टाइल देख हमारा हुआ।"

दादू ने कोहनी मारी। आशय था, लिफाफे ले ले। तदनुसार मैंने किया।

"आप संकोच करते हैं।बड़े-बड़े साहित्यकारों ने, जो महानगर में आये, लिफाफा लिया है यहां से। हिंदी ऐसे ही विकसित नहीं हो गयी।" चातकजी बोले।

अपनी-अपनी नम्रताएं लपेटे हुए हम कोठी से निकले।

गली के कोने पर चातकजी बोले,"लिफाफे में सौ का पत्ता होगा,यहीं छुट्टा करवा लो।" 

"क्यों?जरुरत क्या है? मैं बोला।

"हमारा कमीशन दो, तीस रुपया। सभी देते हैं।"

दादू ने कहा,"दे दो, परंपरा है।"

मैंने चाताकजी की ओर तीस रुपए बढ़ाये।

"और जगह भी तुम्हारा मान-सम्मान करवा देंगे। यहां कई कोठियां हैं। हम बरसों से यहां हिंदी करते रहे हैं। फोन पर कह देते हैं, तो जम जाता है। पहले भाग-दौड़ करनी पड़ती थी। इस कोठी का रेट परंपरा से सौ है। ज्यादा रेट की भी जगहें है। वहां भी तुम्हारा सम्मान जमा देंगे।" वे चले गए।

"तीसरे माले का बाथ-रुम बन जाना हिंदी के हित में नहीं रहा। फिर भी दो-चार दिन जब तक पूरे सत्तर रुपए उड़ नहीं जाते, मैं साहित्य के भविष्य के प्रति आश्वस्त हूं।" दादू बोला और जोरों से हंसने लगा। 
 
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