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शरद जोशी का मजेदार व्यंग्य: महंगाई और समाजवाद

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Fri, 19 Jan 2018 06:04 PM IST
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Sharad Joshi Satire Mahangai aur samajvaad
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विस्तार

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।

समाजवाद बहुत महंगा पड़ रहा है। दो साल पहले तक स्थिति ठीक थी। सरकार कहती थी कि हमारे पास पर्याप्त स्टॉक है और हम यथासमय आवश्यकतानुसार बाजार में रिलीज कर देंगे। मंडियों में नरमी थी। किसी भी छोटे-मोटे दुकानदार से समाजवाद मांगो, वह तोल देता था। बड़े पैक से लेकर छोटे पैक तक उपलब्ध था। देश में खपत ज्यादा नहीं थी, उत्पादन काफी हो रहा था। मंत्री महोदय बताते थे कि हम समाजवाद में न सिर्फ समाजवाद हो गये हैं, बल्कि जल्दी ही हम निर्यात भी करने लगेंगे। उनके बयानों से उत्साह बना रहता था और मंदी का वातावरण नहीं था।

फिर एकाएक स्थिति बिगड़ने लगी। आज हालत यह है कि खोजे से समाजवाद नहीं मिल रहा है। दिल्ली, जो तत्संबंधी उत्पादन और वितरण का सबसे बड़ा केन्द्र है, वहां खामोशी छायी है। कोई समाजवाद की मांग करता है, उसे महंगाई की चर्चा के पैकेट मिलते हैं।
मैंने एक सज्जन से बात की। कुछ समय पहले वे हमारे नगर में समाजवाद के प्रमुख वितरक थे। बोले, "शुद्ध समाजवाद का खयाल छोड़ दीजिए। वह आपको कहीं नहीं मिलेगा। जो चीज बाजार में नहीं है, उसके लिए क्यों परेशान होते हैं?"

मैंने कहा, "मैं शुद्ध की बात नहीं कर रहा। मैं अपने देशी उत्पादन की पूछ रहा हूं, जिसमें थोड़ा-सा पूंजीवाद, महंगाई, अमरीकन मदद आदि मिली रहती है।" वे हंसने लगे। फिर मुझे इस नजर से जांचा कि मैं रहस्य बता देने योग्य व्यक्ति हूं या नहीं? कहने लगे, "सारा समाजवाद गवर्नमेंट ने स्टॉक कर लिया है।"

"क्यों?" मैंने पूछा।

बोले, "चुनाव के समय रिलीज करने के लिए।" फिर एक आंख दाब हंसे।

मेरे एक मित्र, जो अर्थशास्त्र पर लेख आदि लिखते हैं, का कहना कुछ और है। बता रहे थे कि देश में कागज की कमी ने समाजवाद के उत्पादन को बहुत धक्का पहुंचाया है। क्योंकि कुल मिलकर सारा समाजवाद कागज पर होता था। कागज की कमी आयी, तो सारा उत्पादन ठप्प हो गया। पोजीशन ठीक होते ही, फिर समाजवाद बाजार में आ जाएगा।

महंगाई सबको खा गयी। भाव बढ़ते जा रहे हैं, आदमी घटता जा रहा है। सरकार में यह आदत अच्छी है कि जब टैक्स लगाती है, तो मामूली आदमी का बड़ा ख्याल रखती है। मामूली आदमी का ध्यान पहले केवल साहित्य में रखा जाता था, आजकल बजट में भी रखा जाने लगा है। मैं तो बजट की इस साहित्यिक प्रकृति का प्रशंसक हूं। टैक्स मामूली आदमी पर नहीं लगता। बड़े आदमी पर लगता है। खर्च बढ़ता देख वह बड़ा आदमी अपने उत्पादन का भाव बढ़ा देता है, जिसे मामूली आदमी चुकाता है। इस तरह मामूली आदमी और भी मामूली हो जाता है, सरकार सौ टका समाजवादी लगती है। पूंजीवाद बदनाम होता है- जो उसकी नियति है। आखिर सारे सुख तो मिलने से रहे। थोड़ी बदनामी उठा अगर फायदा होता हो, तो पूंजीवाद को वह स्वीकार है। इस प्रकार देश तीन दिशाओं में एक साथ बढ़ता है- समाजवाद, पूंजीवाद और गरीबी। दाम बढ़ते जाते हैं। समाजवाद मजबूत होता है, व्यापारी और भी प्रसन्न रहता है।

शक्कर, नमक, अनाज, केरोसिन, स्टंट, फिल्म, साबुन आदि सभी के क्यों लग गए। पूरा देश पंक्तिबद्ध, अनुशासित हो गया। समाज में एकता आ गयी। छोटे-मोटे झगड़े समाप्त हो गए। अनेकता में एकता का जो पुराना भारतीय गुण है, वह इस बार अभाव में पनप उठा। सारा देश गाली दे रहा है। एक स्वर, एक आवाज। चूंकि, सभी रो रहे हैं, अतः प्रान्तों में परस्पर जलन नहीं रही। बड़ी बात है। आज भाव उठ रहे हैं। एकता बड़ी बात है। आशा है, कल सारा देश उठ जाएगा। या यों हो सकता है, देश पहले उठ गया हो, भाव अब उठ रहे हैं। 

मामूली आदमी की चाय में शक्कर कम हो रही है, दाल में नमक कम हो रहा है, लालटेन में किरोसिन कम हो रहा है, अखबार में कागज कम हो रहे हैं। इसके किचन से वनस्पति गायब है। उसके बाथरुम से साबुन गायब है। सभी जगह समाजवाद की प्रतीक्षा से काम चलाना पड़ रहा है। देश प्रगति करेगा। प्रगति करेगा, तो हम साबुन से नहाएंगे। अभी तो कामना है कि नमक-भर प्रगति कर ले। तीन रूपए किलो हो रहा है कम्बख्त।

क्यू में खड़े मामूली आदमी को सरकार का गम सताता है, जो कष्ट में है। अभाव, हड़ताल, उत्पादन गिरने से असली नुकसान सरकार को हो रहा है। मामूली आदमी की तरह सरकार अपना खर्च भी चला नहीं पा रही है। समाजवाद लाना तो बाद की बात है, अभी दफ्तरों का खर्च नहीं जुट रहा है। वह टैक्स लगाती है, ताकि रूपया आए। मामूली आदमी टैक्स का वजन उठाता है और वजन ज्यादा होने से हड़ताल करता है। खरीदी कम करता है, जिससे सरकार को नुकसान होता है और उसका खर्च नहीं जुटता, तो वह टैक्स लगाती है। सरकार यह सब जनता के प्रति हार्दिक सद्भावना के कारण कर रही है। सहानुभूति, टैक्स, बढ़ते भाव और सहानुभूति, टैक्स, फिर बढ़ते भाव! यह एक राष्ट्रीय चक्कर है, जो चल रहा है। मामूली आदमी गोल-गोल घूम रहा है। आजकल पृथ्वी ने गोल घूमना बंद कर दिया है। आदमी घूम रहा है। 

मैंने एक व्यक्ति से पूछा, "समाजवाद चाहते हो?"

"कहीं से दो बोरा गेहूं का इंतजाम करवा दो," वह बोला

"क्या तुम सामाजिक न्याय की आवश्यकता अनुभव नहीं करते?"

"तीन लीटर किरोसिन से होता क्या है?" वह बोला

"तुम जानते हो समाजवाद आने वाला है।"

"सुना अगले दो माह में शक्कर की किल्लत और बढ़ जाएगी," उसने कहा। 

संवाद असंभव थे। भूख के मारे बिरहा बिसर जाए, कजरी-कबीर लोग भूल जाएं, समझ में आता है, मगर अभाव और महंगाई में समाजवाद को भूल जाएंगे, यह कल्पना मार्क्स को भी नहीं होगी। उस दिन मैंने जो दृश्य देखा, तो एकाध कविता संकलन फाड़ डालने की इच्छा होने लगी। मुझसे कुछ दूर एक रोमांटिक जोड़ा बैठा था। पुरुष कुछ देर स्त्री के बालों से खेलता रहा। फिर उसने स्त्री को अपने अपने समीप खींच लिया, उसकी बाहें उस पतले से शरीर से लिपट गयीं। शरीर की ऊष्मा को महसूस करते हुए अपने होठ स्त्री की गरदन के समीप ला उसने धीरे से कहा, "किरोसिन का इंतजाम आज भी नहीं हो सका।"

निरंतर महंगाई तथा अभाव और बढ़ने का भय, मामूली आदमी की आत्मा में उतर गया है। मामूली आदमी के सरोकार सिर्फ उसके निजी सीमित अर्थशास्त्र के आधार पर एक दिन और गुजार लेने की शुभेच्छा से सीमित रह गए हैं। जो लोग इन दिनों भी गंभीर सैधांतिक बहसों में जुट गए हों या कविताएं बना रहे हो, उन्हें स्वयं पर विचार कर डॉक्टर से इलाज कराना चाहिए। इस बात का पूरा खतरा है कि आप आम आदमी से राष्ट्र, एकता, प्रजातंत्र, कविता, समाजवाद या मानवीय स्वतंत्रता की बात करें और वह जवाब में आपको कस कर झापड़ रसीद कर दे। अतः सावधान!

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