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शरद जोशी का मजेदार व्यंग्य: नया मेघदूत

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Thu, 18 Jan 2018 05:55 PM IST
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sharad joshi
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विस्तार

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।

रामगिरी के पास से मेघ इस साल भी गुजरा होगा।आषाढ़ के पहले दिन राम जाने कौन सी तारीख थी पर यक्ष वहां होगा, जिसकी मलका किसी अलका में बैठी होगी। कुटुज अभी भी उगते होंगे, जंगली फूल हैं इन्हें कौन लगाता है, यह तो लगातार उगते चले जाते हैं। और भी काफी बातें वैसी ही होंगीं जो पहले थीं। हो सकता है, एकाध कॉलोनी बन गयी हो। हो सकता है, यह यक्ष वहां ठेकेदार हो। हो सकता है, वहां कोई खदान निकल आई हो और यक्ष अपनी आदत के अनुसार पैसा पीट रहा हो। कालिदास ने मुझे यक्ष के मामले में प्रेज्यूडिस कर दिया है। एक तो यही है कि इस जाति के लोग बड़े जोरू के गुलाम होते हैं। जहां रहते हैं उसी की रट लगाए रहते हैं। दूसरा यह है कि लोग अपना केस बराबर फाइट नहीं कर पाते। कुबेर नाराज हो गया तो चुपचाप राज्य से बाहर हो गए। और तीसरी बात कि बड़े कंजूस होते हैं। सन्देश भेजने का सामान्य खर्च बचाकर ये लोग बादल वगैरह से सन्देश भेजने की सोचते हैं। एक कविता ने उस जमाने की सारी कम्युनिकेशन फैसिलिटी को बदनाम कर दिया। कंजूसी है। और क्या ?

विरहिणियों की भी क्या कहिए। आहें भरना मात्र जिनकी सोशल एक्टिविटी हो, आंसू बहाने में जो मोहल्लेवालियों के जो पुराने रिकॉर्ड तोड़ दे और डाइटिंग से दुबली रहे और कहे कि मैं तो गम की मारी हूं। चील-कौवों से, हवा-बादल से जो सन्देश पूछती फिरे। गजब के लोग थे उस जमाने में। जो काम करते थे बड़े पैमाने पर करते थे। आजकल के लोग मोहब्बत करते हैं, एक खबर नहीं बन पाती लोकल अखबार के लिए। पहले के लोग मोहब्बत करते थे, किताबें तैयार हो जाती थीं। पुरानी मोहब्बत की दास्तानें आज कोसने लगी हैं और आज जो प्रेम होता है उसे प्राचार्य महोदय एक्स्ट्रा करीकुलर एक्टिविटी घोषित कर देते हैं। 
आजकल मेघदूत का कोई सिलसिला नहीं है। खबर देनी हो, खुद जाना चाहिए। बार-बार चिट्ठियां भेजो तो प्रेमिका पोस्टमैन के साथ चली जाए। माशूक और नामाबर का रोमांस शेक्सपिअर से चला आ रहा है। कालिदास के जमाने में लोग शरीफ होंगे। मेघदूत भाभी की ओर बुरी नजर नहीं डालता होगा। कविता कविता रह जाती, उपन्यास नहीं बन पाती कि जब यक्ष का सन्देश लेकर मेघदूत पहुंचा तो यक्षिणी को देख ठगा सा रह गया। और क्यों ना रहे साहब। जो उज्जैनी की सुंदरियों पर कुर्बान का चुका हो, दशपुर में पगलाया हो, हर शहर और बस्ती में बड़ी-बड़ी आँखों वालियों ने जिसे नैनछाप बालों से क्षत-विक्षत कर दिया हो, बताए अलकापुरी में वह क्यों चूकेगा। युद्ध और प्रेम में काहे की ईमानदारी, सब जायज है। फिर उसे यह पता है कि उसका पति कोसों दूर है, अभी आने का नहीं और यह अकेली है। कालिदास खतम कर अपनी कविता अब असल किस्सा मेघदूत शुरू होगा। मेघ कहेगा -"अरी किस फेर में पड़ी है तू! मैं देखकर आया हूं तेरा पति रामगिरी के क्षेत्र में रंगरेलियां मना रहा है। वह तुझे याद भी नहीं करता, सन्देश भी नहीं भेजता। तू अपनी यह चार दिन की चांदनी क्यों वेस्ट करती है।" 

यक्षिणी के तेवर चढ़ जाते हैं, "अच्छा, मुए की ये मजाल!"

बरसों बाद यक्ष आता है तो मोहल्लेवाले लम्बे हाथ कर-कर बताते हैं, "अरे, हमने तो तुझे पहले ही बोला था भाई, कि घरवाली को साथ ले जा, पर तू नहीं माना। ले, वह किसी 'मेघ' के साथ भाग गयी!"

यक्ष दुहत्त्थड़ मारकर रो देता है। और अपने जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा ग्रहण करता है, "कभी सन्देश किसी अन्य पुरुष के हाथ न भेजो!"

मेरा दिमाग तो शक्की है। मैं कालिदास और उसके पात्रों-सा भोला नहीं हूं। कण्व के आश्रम में एक साहब घुस गए। कहने लगे, मैं यहां का राजा हूं। और शकुंतला ने  बात मान ली। न जान न पहचान, शादी कर ली। ऋषि के आने तक भी सब्र न किया गया। यक्ष ने एक मेघ जाता देखा तो सन्देश भेज दिया। मैं और मेरे पात्र कभी ऐसा नहीं कर सकते। मेरा दिमाग शक्की है। मैं पूछता हूं कि यक्ष को कुबेर ने अपने राज्य से कुछ वर्षों के लिए निकाला क्यों? क्या यह नहीं माना जाए कि बॉस कुबेर की यक्ष की पत्नी पर नजर थी और वह किसी तरह यक्ष को अकालपुरी से 'खो' कर देना चाहता था? जवाब देंगे कालिदास क्या इसका? अजी हमें तो तब पता लगा जब मेघदूत अलकापुरी पहुंचा। कहां का विरह और कैसा विरह! यक्ष के घर में कुबेर-यक्षिणी रोमांस कर रहे हैं। उसने सिर पीट लिया। उधर बेचारा यक्ष जंगलों की खाक छान रहा है और इधर यह कुल्छिनी!

मेघदूत! क्या कहने! ऐसी पुस्तकें तो कोर्स में ही चल सकती हैं। ऐसी ही किताबें पढ़कर जब छात्र निकलते हैं तो दुनिया कहती है-"भाई, आजकल की पढ़ाई जीवन में काम नहीं देती। ऐसा विरह तो किसी पेशेवर अभिनेत्री को भी स्वीकार नहीं होगा कि वह मोटी से दुबली हो जाए। ऐसा हीरो कौन एक्टर बनना चाहेगा जिसमें सारी बहादुरी सिर्फ सन्देश भेज देने में है। एक लैटरपैड और एक स्याही की बोतल खरीदकर कोई भी प्रेमी बन जाएगा। पंद्रह पैसे के टिकट से आप सोलह साल की लड़की को बेवकूफ नहीं बना सकते भाई साहब!"

खैर, हटाइए। जरा कवि बनकर देखिए। प्रेम नौटंकी स्तर पर भी होता है। उसे भी आजमाइए। पर वह सब भी शादी के पहले तक। शादी के बाद अगर वह शहनाईवाला, वह घोड़ा सजानेवाला, वह ससुर अगर सड़क पर भी नजर आ जाए तो आदमी पगला जाता है और पत्थर फेंकने लगता है। सारे नशे दूर हो जाते हैं। वे ही प्रेम के हिरन जो बैंड-बाजा सुन शादी के वक्त आ गए थे, बच्चों का रोना-चिल्लाना सुन कुछ साल बाद भाग जाते हैं। आदमी मानता है कि उसे इस अलकापुरी से दूर कहीं खाने को मिले। ब्रह्मचर्य-आश्रम से संन्यास-आश्रम तक की यह चिल्ल-पों उसे खाने दौड़ती है। वह सोचता है, कोई ऐसी जगह हो, जहां कोई न हो (जैसे रामगिरी) और वहां वह शांति से रहे। 

और फिर आषाढ़ के पहले दिन जब मेघ सी.आई.डी. नजरों से रामगिरी के ऊपर से गुजरता है, यक्ष कुटुज के फूल हाथ में लेकर कहता है-"हे मेघ! उस यक्षिणी को मत बताना कि मैं यहां हूं। मेरी मान कि तू अलकापुरी जा ही मत। पड़ने दे वहां सूखा। और अगर जाना ही है तो तू वहां उस यक्षिणी से मत कहना कि मैं कहां हूं। हे मेघ, यह शांति मुझे बड़ी मुश्किल से प्राप्त हुई है। जिस प्रकार अमुक वस्तु फलां बात हो जाने से सुखी हो जाती है, उसी प्रकार मैं भी अलकापुरी से दूर यहां सुखी हूं। जिस प्रकार ये-वे कष्ट पाकर उसे भुलाने का प्रयास करते हैं, वैसा ही मैं भी कर रहा हूं।" इसी प्रकार वह कालिदास की टेक्निक से उपमाएं देता हुआ मेघ से यही कहेगा कि हे मेघ, मेरी खबर किसी को नहीं देना। 

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