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समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को निशाने पर लेने की जुर्रत सिर्फ लेखक शरद जोशी ही कर सकते हैं। हमारे आस-पास की समस्याएं और उस पर बुद्धिजीवियों के विश्लेषण पर जोशी जी ने जबरदस्त कटाक्ष किया। इस लेख के अंश 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिए गए हैं। जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा किया गया है। अपने लेख में व्यंग्य सम्राट ने नेताओं से लेकर पुलिसकर्मियों तक पर मजेदार चुटकी ली है। नई पीढ़ी को इसे जरूर पढ़ना चाहिए।
बुद्धिजीवियों का यह कर्तव्य है कि राष्ट्र की समस्याएं सुलझाने में मदद करें। नेता अपने हर भाषण में यही बात कहते हैं। खुद तो करते नहीं, हमारे सिर पर डाल रखा है। सवाल यह है कि बुद्धिजीवी कौन है? उत्तर यह है कि मैं हूं। आप हैं। यहां बैठे सब लोग हैं। जब वे नेता हो सकते हैं तो क्या हम बुद्धिजीवी नहीं हो सकते? जब उन्हें खुद को नेता कहते हुए शर्म नहीं आती तो हम अपने को बुद्धिजीवी कहने में क्यों शरमाएं।
पर इस देश में समस्याएं अधिक हैं और उसकी तुलना में बुद्धिजीवी कम हैं। फिर यह भी हो सकता है कि हम जिसे समस्या समझ रहे हों, नेता उसे समस्या ही न मानें। मैंने सोचा, चलो नेता से ही पूछ लें कि समस्या क्या है?
मैंने एक नेता से पूछा, “जी आपकी नजर में सबसे बड़ी समस्या क्या है?’’
वह बोला, “सबसे बड़ी समस्या तो एक बार जहां से चुनाव जीत गये, वहां से फिर जीतना है।’’
मैंने कहा, “बुद्धिजीवी के नेता मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं?’
वे बोले, “बुद्धिजीवी के नाते तो नहीं, हां गुण्डे-बदमाश के नाते आप मेरी जरूर मदद कर सकते हैं”
मैने कहा, “गुण्डे-बदमाश होने के लिए तो मुझे फिर से जन्म लेना पड़ेगा।’’
वे बोले, “तभी आइए। प्रजातंत्र तो अमर है। चुनाव तो होते ही रहेंगे।”
मेरा पत्ता कट गया। इन नेताओं की जो प्रमुख समस्या है, उसमें तो मैं कोई मदद नहीं कर सकता।
शरद जोशी ने नेताओं के बाद पुलिस की व्यथा भी अपनी कलम से लिख डाली। वे लिखते हैं कि पुलिस अफसर ये तो मानता है कि लॉ एण्ड ऑर्डर बड़ी समस्या है लेकिन उसे सुलझाने के लिए हमारे पास लोग कम हैं। उन्होंने एक बुद्धिजीवी बनकर पुलिस वाले से बात की तो देखिए वार्तालाप का कितना मजेदार दृश्य बना।
मैंने पूछा, क्यों साहब पुलिस की वर्दी में कहीं आप कोई बुद्धिजीवी तो नहीं हैं? “वह हंसे। बोले, “बुद्धिजीवी होता तो ये नौकरी मुझे कौन देता? आपकी तरह चप्पलें खटखटाता फिरता।”
पुलिस ने कहा कि इस देश में अपराध बहुत बढ़ गये हैं। अपराध करने वालों को समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें। मतलब यह है कि हत्या करें या बैंक लूटे, अपहरण करें या दुकान में घुसकर नकद कैश ले लें। न तो पुलिस के पास फुरसत है और न ही अपराधी के पास।
मैंने पुलिस अफसर महोदय से पूछा, “आपकी रुचि किसमें हैं? आप हत्याएं रोकना चाहते हैं या हत्यारों को पकड़ना चाहते हैं?” वे बोले “हत्याएं जिन कारणों से होती हैं, उसका हमारे विभाग से कोई सम्बन्ध नहीं’’।
दिशाएं आठ हैं। हत्यारा किसी भी दिशा में भाग सकता है। अगर हर दिशा में हत्यारे को पकड़ने के लिए दो-दो पुलिसवाले दौड़ाये जाएं तो एक हत्या के पीछे सोलह पुलिस वालों की जरूरत होती है। फिर वे दौड़ते हुए अपने घर न चले जाएं, इसके लिए भी कुछ चाहिए ही।
लंबी चौड़ी वार्ता के बाद शरद जोशी पुलिस वाले के पास किसी हत्या के केस से जुड़ा गहरा अध्ययन लेकर पहुंचे। हत्यारे का मनोविज्ञान, जिसकी हत्या हुई थी उसकी आर्थिक स्थिति से लेकर इतिहास भूगोल तक। लंबा चौड़ा अध्यन देखने के बाद पुलिस ने शरद जोशी को ही गिरफ्तार कर लिया। जब शरद जोशी ने खुद को एक बुद्धिजीवी बताते हुए साफ किया कि मैं सिर्फ एक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूं। तो पुलिस ने कहा… “बिना स्वंय हत्या किए इतना बढ़िया डिटेल विवरण दे ही नहीं सकते’’, “फिर डांटकर बोले चलो थाने।’’
शरद जोशी लिखते हैं उसके बाद जो हुआ वो लेख नहीं, कविता का विषय है। मैं तो यहीं कहूंगा कि राष्ट्र की समस्याओं के चिंतन में मुझसे जो बन पड़ा वह मैंने किया। आप यह भी समझ गये होंगे कि नेता बुद्धिजीवियों से क्यों अपील करते हैं? उन्हें डर है कि कहीं वे ही न फंस जाएं।