विस्तार
यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था।
कई बार मुझे यह भ्रम हो जाता है कि देश प्रगति कर रहा है और कई बार यह भ्रम हो जाता है कि यह भ्रम नहीं है, वाकई कर रहा है। इसके बाद अगला प्रश्न उठता है कि कहां से, किस दिशा में प्रगति कर रहा है? और क्या भारतीय प्रगति के सन्दर्भ में दिशा शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए अथवा नहीं? प्रगति कहीं से किसी दिशा में हो रही है या किसी दिशा से कहीं भी हो रही है। दिशा से दिशा में हो रही है अथवा कहीं से कहीं हो रही है? क्या दिशा कहीं है? क्या कहीं दिशा है? क्या भारतीय सन्दर्भ में प्रगति और दिशाभ्रम समानार्थक शब्द हैं? कोष क्या कहता है? जिनमें जोश है, उनका जोश क्या कहता है? जो दिशा की बात करते हैं, उनकी दिशा क्या है? जो दशा को रोते हैं उनकी दिशा क्या है? इसमें चिंता किस विषय में की जानी चाहिए? उनके रोने पर, दशा पर या दिशा पर? और उसके साथ हर उदीयमान राष्ट्र का एक बाल-सुलभ प्रश्न है कि दिशाएं कितनी हैं? तथा करोड़ों के देश में कुल मिलाकर दशाएं कितनी हैं? राजनीतिक सवाल है कि रोनेवाले कितने हैं? आप क्या कर रहे हैं?
चिंतन चालू है। उसे करनेवाले भी कम नहीं। वे भी चालू हैं। वे रो रहे हैं। भारत में रोनेवालों की तीन जातियां हैं। कुछ अतीत पर रोते हैं, कुछ भविष्य पर, कुछ वर्तमान पर। जिसकी जैसी औकात है वैसा वह रोता है। रोना राष्ट्रीय धर्म है, आपकी गंभीरता और जागरुकता का सूचक। रोना मुक्ति नहीं, असफलता नहीं, धंसने का प्रयत्न है। रोना आपके सरोकार का, गहरे लगाव का सूचक है। रोने से दरवाजा खुलता है। जिस स्तर पर रोओ, उस स्तर का दरवाजा खुलता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर में रोनेवालों के लिए विदेश का दरवाजा खुलता है, प्रांतीय स्तर पर रोनेवालों के लिए राजधानी का दरवाजा खुलता है, जो राष्ट्रीय स्तर पर रोए दिल्ली दरवाजा हमेशा खुला रहा। रोइए, दरवाजा खुलेगा, अन्दर जाएं, वहां अन्य रोनेवाले मिलेंगे, काम चालू है, चिंतन चालू है। एजेंडा बदलता है। मगर रोने की कार्यवाही चलती रहती है।
टुच्चे हैं, जो वर्तमान पर रोते हैं। बहुत गहरे हैं, जो अतीत पर रोते हैं, महान हैं, जो भविष्य पर रोते हैं। देश की खास बात है कि किसी काल की उपेक्षा नहीं हो रही। काम बराबर चल रहा है। चिंतन चालू है। जिसका वर्तमान साध गया, वह भविष्य पर रोने लगा। वह भी सध गया, तो अतीत की चिंता में डूबा। इतिहास के जिक्र से मानसिक ऐय्याशी की गंध आती है। आने दो। हर गहरी वस्तु से आती है। रोने का शिल्प वैविध्य से पूर्ण है। जिसके हाथ में अखबार है वह रो रहा है, जिसके हाथ में किताब है, वह रो रहा है, जिसके हाथ में माइक है, वह रो रहा है। राष्ट्रधर्म पर बलि-बलि जा रहे हैं। रोना राष्ट्रधर्म है। आंसू गहराई के सूचक हैं। चूंकि कुर्सी पर बैठा व्यक्ति सामने खड़े व्यक्ति की तुलना में अधिक गहरा है, अतः वह अधिक रो रहा है। नदियां बह रही हैं।
चिंतन चालू है। दशा का अध्ययन और दिशा की तलाश चालू है। काम बराबर बंटा है। कुछ दशा पर चिंतित हैं, कुछ दिशा पर। कुछ मिलाकर ध्वनि रोने की है। कहां जाएं, कैसे जाएं और क्यों जाएं? कौन जाएगा?
जानेवालों के चित्र छप रहे हैं। कार्टून छप रहे हैं। बयान दे रहे हैं, हूट हो रहे हैं। कुल मिलाकर वे सफल हैं। जाना नहीं है, पर निरंतर जाते रहना है। स्टेशन पर दुकान खोल बस जाना है। रेलों की घोषणाएं करनी हैं, गंभीर सूचनाएं देनी हैं, खुद कहीं नहीं जाना। यात्रा से बड़ी राष्ट्रसेवा है- जंक्शन के खानसामा हो जाना। जो भी दिशा हो हम थाली सप्लाई करेंगे। यात्री दिशा की सोचता है, खानसामा अपनी दशा की सोचता है। भीड़ है, घोषणाएं हैं, ठेले हैं, खिड़की से बाहर झांकते चेहरे हैं और उन सबको चीरते थाली लिए खानसामा और बेयरे हैं। सब गड्डमड्ड है और यही राष्ट्र है। अगले स्टेशन पर थाली का इंतजाम करना जरूरी है। यह राष्ट्रधर्म है। हमें खिलाओ ताकि हम बो सकें। कुर्सी दो ताकि हम विचारें, माइक दो ताकि हम रोयें। आओ, सब मिलकर रोयें। सहयोग करें। कुर्सीवालों, माइकवालों से सहयोग करें। तेरे तम्बू की शरण हमारा विचारशील सिर हो। राष्ट्रधर्म पर बलि-बलि जाएं।
चिंतन चालू रखिए, बोलिए, रोइए, दशा बताइए, दिशा दीजिए।
"भाइयों और बहनों, आज इस बांध का उद्घाटन करते हुए मुझे हार्दिक प्रसन्नता होती है। आप तो जानते ही हैं कि पूज्य बापू ने बांधों के विषय में क्या कहा है। आज इस बांध से क्षेत्र की प्रगति होगी। कमीशन, भ्रष्टाचार आदि मिलकर इस बाँध की कुल लागत......."
जारी रखिए, सुनने के लिए भीड़ खड़ी है। उसे यह भ्रम है कि राष्ट्र प्रगति कर रहा है। और हो सकता है कि यह भ्रम हो और वाकई प्रगति कर रहा हो।
तब अगला प्रश्न उठता है!
उठने दो, निपट लेंगे। चिंतन चालू है!