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फिल्म से भी बेहतरीन है शरद जोशी का व्यंग्य: तुम कब जाओगे, अतिथि?

Updated Tue, 26 Dec 2017 05:06 PM IST
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विस्तार

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा किया गया था। 

आज तुम्हारे आगमन के चतुर्थ दिवस पर यह प्रश्न बार-बार मन में घुमड़ रहा है- तुम कब जाओगे, अतिथि?

तुम जहां बैठे निसंकोच सिगरेट का धुआं फेंक रहे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेण्डर है। देख रहे हो न! इसकी तारीखें अपनी सीमा में नम्रता से फड़फड़ाती रहती हैं। विगत दो दिनों से मैं तुम्हें दिखाकर तारीखें बदल रहा हूं। तुम जानते हो, अगर तुम्हें हिसाब लगाना आता है कि यह चौथा दिन है, तुम्हारे सतत्व आथित्य का चौथा भारी दिन! पर तुम्हारे जाने की कोई संभावना प्रतीत नहीं होती। लाखों मील लंबी यात्रा करने के बाद वे दोनों एस्ट्रॉनाट्स भी इतने समय चांद पर नहीं रुके थे, जितने समय तुम एक छोटी सी यात्रा कर मेरे घर आये हो। तुम अपने भारी चरण कमलों की छाप मेरी जमीन पर अंकित कर चुके हो, तुमने एक अंतरंग निजी सम्बंध मुझसे स्थापित कर लिया, तुमने मेरी आर्थिक सीमाओं की बैंजनी चट्टान देख ली, तुम मेरी काफी मिट्टी खोद चुके हो। अब तुम लौट जाओ, अतिथि! तुम्हारे जाने के लिये यह उच्च समय, अर्थात् हाईटाइम है। क्या तुम्हें तुम्हारी पृथ्वी नहीं पुकारती? उस जिन जब तुम आये थे, मेरा हृदय किसी अज्ञात आशंका से धड़क उठा था। अंदर ही अंदर कहीं मेरा बटुआ कांप गया था। उसके बावजूद एक स्नेह भीगी मुस्कुराहट के साथ मैं तुमसे गले मिला था और मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की थी। तुम्हारे सम्मान में ओ अतिथि, हमने रात के भोजन को एकाएक उच्च मध्यम वर्ग के डिनर में बदल दिया था। तुम्हें स्मरण होगा कि दो सब्जियों और रायते के अलावा हमने मीठा भी बनाया था। इस सारे उत्साह और लगन के मूल में एक आशा थी। आशा थी कि दूसरे दिन किसी रेल से एक शानदार मेहमान नवाजी की 

छाप अपने हृदय में ले तुम चले जाओगे। हम तुमसे रुकने के लिए आग्रह करेंगे, मगर तुम नहीं मानोगे और एक अच्छे अतिथि की तरह चले जाओगे। पर ऐसा नहीं हुआ! दूसरे दिन भी तुम अपनी अतिथि-सुलभ मुस्कान लिये घर में ही बने रहे। हमने अपनी पीड़ा पी ली और प्रसन्न बने रहे। स्वागत-सत्कार के जिस उच्च बिंदु पर हम तुम्हें ले जा चुके थे वहां से नीचे उतर हमने फिर दोपहर के भोजन को लंच की गरिमा प्रदान की और रात्रि को तुम्हें सिनेमा दिखाया। हमारा सत्कार का यह आखिरी छोर है, जिससे आगे हम किसी के लिए नहीं बढ़े। इसके तुरंत बाद  भावभीनी विदाई का वह भीगा हुआ क्षण आ जाना चाहिए था, जब तुम विदा होते और हम तुम्हें स्टेशन तक छोड़ने जाते। पर तुमने ऐसा नहीं किया। 

तीसरे दिन की सुबह तुमने मुझसे कहा, 'मैं धोबी को कपड़े देना चाहता हूं' यह आघात अप्रत्याशित था और इसकी चोट मार्मिक थी। तुम्हारे सामीप्य की बेला एकाएक यों रबर की तरह खिंच जाएगी, इसका मुझे अनुमान न था। पहली बार मुझे लगा कि अतिथि सदैव देवता नहीं होता, वह मानव और थोड़े अंशों में राक्षस भी हो सकता है। 'किसी लॉन्ड्री पर दे देते हैं, जल्दी धुल जाएंगे'। मैंने कहा। मन ही मन एक विश्वास पल रहा था कि तुम्हें जल्दी जाना है। 
 
'कहां है लॉन्ड्री'? 
'चलो चलते हैं'। मैंने कहा और अपनी सहज बनियान पर औपचारिक कुर्ता डालने लगा। 
'कहां जा रहे हैं'? पत्नी ने पूछा 
'इनके कपड़े लॉन्ड्री पर देने हैं'- मैंने कहा

मेरी पत्नी की आंखें एकाएक बड़ी-बड़ी हो गईं। आज से कुछ बरस पूर्व उनकी ऐसी आंखें देख, मैंने अपने अकेलेपन की यात्रा समाप्त कर बिस्तर खोल दिया था। पर अब जब वे ही आंखें बड़ी होती हैं तो मन छोटा होने लगता है। वे इस आशंका और भय से बड़ी हुई थीं कि अतिथि अधिक दिनों तक ठहरेगा! और आशंका निर्मूल नहीं थी, अतिथि तुम जा नहीं रहे। लॉन्ड्री पर दिये कपड़े धुलकर आ गये और तुम यहीं हो, तुम्हें देखकर फूट पड़ने वाली मुस्कुराहट धीरे-धीरे फीकी पड़कर अब लुप्त  हो गई। ठहाकों के रंगीन गुब्बारे, जो कल तक इस कमरे के आकाश में उड़ते थे, अब दिखाई नहीं पड़ते। बातचीत की उछलती हुई गेंद चर्चा के क्षेत्र के सभी कोनों से टप्पे खाकर सेंटर में आकर चुप पड़ी है। अब इसे न तुम हिला रहे हो, न मैं। कल से मैं उपन्यास पढ़ रहा हूं और तुम फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रहे हो। शब्दों का लेन-देन मिट गया और चर्चा के विषय चूक गये। परिवार, बच्चे, नौकरी, फिल्म, रिश्तेदारी, राजनीति, तबादले, पुराने दोस्त, परिवार-नियोजन, महंगाई, साहित्य और यहां तक की आंख मार-मारकर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी जिक्र कर लिया और अब एक चुप्पी है। सौहार्द्र अब शनै: शनै: बोरियत में रुपान्तरित हो रहा है। भावनाएं गलियों का स्वरूप ग्रहण कर रही हैं। पर तुम जा नहीं रहे। किस अदृश्य गोंद से तुम्हारा व्यक्तित्व चिपक गया है, मैं इस भेद को सपरिवार नहीं समझ पा रहा हूं। बार-बार यह प्रश्न उठ रहा है- तुम कब जाओगे, अतिथि? 

कल पत्नी ने धीरे से पूछा था, 'कब तक टिकेंगे ये?'
मैंने कंधे उचका दिये, 'क्या कह सकता हूं!'
'मैं तो आज खिचड़ी बना रही हूं, हल्की रहेगी।'
'बनाओ।'

सत्कार की ऊष्मा समाप्त हो रही थी। डिनर से चले थे, खिचड़ी पर आ गये। अब भी अगर तुम अपने बिस्तर को गोलाकार रूप प्रदान नहीं करते तो हमें उपवास तक जाना होगा। तुम्हारे-मेरे सम्बंध एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। तुम्हारे जाने का यह चरम क्षण हैं। तुम जाओ न अतिथि ! 

तुम्हें यहां अच्छा लग रहा है न! मैं जानता हूं। दूसरे के यहां अच्छा लगता है। अगर बस चलता तो सभी लोग दूसरों के यहां रहते, पर ऐसा नहीं हो सकता। अपने घर की महत्ता के गीत इसी कारण गाए गये हैं। होम को इसी कारण स्वीट होम कहा गया है कि लोग दूसरे की होम की स्वीटनेस को काटने न दौड़ें। तुम्हें यहां अच्छा लग रहा है पर सोचो प्रिय कि शराफत भी कोई चीज होती है और गेट आउट भी कोई वाक्य है जो बोला जा सकता है। अपने खर्राटों से एक और रात गुंजायमान करने के बाद, कल जो किरण बिस्तर पर आएगी वह तुम्हारें यहां आगमन के बाद पांचवे सूर्य की परिचित किरण होगी। आशा है, वह तुम्हें चूमेगी और तुम घर लौटने का सम्मानपूर्ण निर्णय ले लोगे। मेरी सहनशीलता की वह अन्तिम सुबह होगी। उसके बाद मैं स्टैण्ड नहीं कर सकूंगा और लड़खड़ा जाउंगा। 

मेरे अतिथि, मैं जानता हूं कि अतिथि देवता होता है, पर आखिर मैं भी मनुष्य हूं। मैं कोई तुम्हारी तरह देवता नहीं। एक देवता, एक मनुष्य अधिक देर साथ नहीं रह सकते। देवता दर्शन देकर लौट जाता है। तुम लौट जाओ अतिथि! इसी में तुम्हारा देवत्व सुरक्षित रहेगा। यह मनुष्य अपनी वाली पर उतरे, उसके पूर्व तुम लौट जाओ! 

उफ्फ, तुम कब जाओगे, अतिथि? 

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