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क्रिकेट पर शरद जोशी का भयंकर व्यंग्य: वही एक कहानी बार-बार पछताने की

दीपाली अग्रवाल, टीम फिरकी, नई दिल्ली Updated Tue, 09 Jan 2018 03:50 PM IST
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sharad joshi
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विस्तार

यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा किया गया था। 

हर खिलाड़ी के विकेट तक पहुंचने के साथ आशा की लौ लगा लेते हैं, सिवाय बिलखने के और क्या कर सकते हैं। नहीं, मानव को धीरज धरना चाहिए, मन का आपा नहीं खोना चाहिए। अरे मूरख मन, तू क्या इतना नहीं जानता कि हमारी टीम का गठन पराजय के लिए ही होता है। विजय तो अपवाद है। वर्षों तक हमारे पूर्वज 'ड्रॉ' को विजय मानते रहे हैं और प्रभु से हर टेस्ट के अंतिम दिन मनाते रहे हैं कि 'ड्रॉ' हो जाए। ऐसे ही क्रिकेट की चिंता में विकल दर्शक को धीरज बंधाते हुए एक प्राचीन हिंदी कवि ने कहा था। 

दर्शक बड़बड़ क्या करते हो,
रोते हो या गाते हो
खड़े हुए हो क्यों मौन बन 
क्यों कुछ नहीं बताते हो 
वह उल्लास-हिलोर कहां अब 
किस तट से टकराती है 
बार-बार यह टीम हार कर 
देश लौटकर आती है 
कहां गया क्रिकेट का यौवन 
कहां विजय का हास-विलास 
देखा गया न किस डाही से
हाय! तुम्हारा विभव विकास 
टूट गया है सारा गौरव,
ना अब बची निशानी है 
मूक व्यथा उर उपजाने को
बाकी रही कहानी है
अब न सुनाओ कथा पराजय,
मत ह्रदय में द्वन्द करो 
या त्यागो रूचि क्रिकेट में 
या नित रोना बंद करो 


हे मित्र! क्रिकेटप्रेमी का तो जीवन ही दुःख का पुंज है। इसका सर्वश्रेष्ट भाग तो वही है, जब खेल नहीं होता है। अखबारों में टीम के निर्माण पर चर्चाएं होती हैं, प्रत्येक खिलाड़ी में छुपी अमिट संभावनाओं का बढ़-चढ़कर वर्णन होता है और मन-मयूर विजय की कल्पना में नृत्य करने लगता है। जब सचमुच में बॉलर सामने आ जाता है, तब एक एक रन निकालना भारी होता है। इसलिए क्रिकेट का रस तो तभी तक है जब खेल न हो रहा हो। विशेषकर भारतीय क्रिकेट का, जहां पराजय विकेट के झण्डों के साथ बंधकर ही उस भूमि में ठुकती है। किसी प्राचीन कवि ने ही जालिम विदेशी बॉलर द्वारा भारतीय खिलाड़ियों को निरंतर आउट करते देख तड़पकर कहा था:

क्रिकेट का खिलाना उसे, जिसे न आये खेल 
यह तो दुखी को और नाहक दुखाना है 
ना ठौर, न ठिकाना, ज्यों-ज्यों बल्ला घुमाना
ऐसे को मिटाना हाय, मिटते को मिटाना है 
अपना निशाना गेंद से उसको बनाना हाय
जो बचाना भी न जाने, यह जुल्म मनमाना है 
रन का बनाना, तेरी दया का दिखलाना ही है
किस्मत में हार लिखी, बॉल तो बहाना है 
सदा ईश से मनाना, शीघ्र पेवेलियन न लौटाना 
 कितने कठोर होकर रोते को रुलाना है 
जागते को सुलाना, सोते को सताना,
नित इंग्लैंड बुलाकर हराना, मानो डूबते को डूबना है 
रन का बनाना जिसे तन का दुखाना लगे 
मन को कलपाना हाय, सारे जग को हंसाना है 


इसलिए हे मित्र, धीरज को धारण करो। आंसू पोंछो। सारे आंसू आज ही बहा दोगे, तो अगली पराजय पर कैसे रोओगे? क्रिकेट तो होता ही रहता है। टीमें बदलती हैं, नतीजे तो नहीं बदलते। दुखी न बनो। उठो और नित्य कर्म में लग क्रिकेट के भावी विवेचन पढ़ दग्ध आत्मा को शांत करो। अंत में एक क्रिकेट के प्रेमी ने क्रिकेट के खिलाड़ी से अपने जीवन के अंतिम दिनों में क्या कहा था, मैं उसका उदाहरण प्राचीन कवि के मुख से दिलाकर अपना कथन समाप्त करता हूं:

जीता कुछ दिन और तो देखता विजय आपकी
खलती न तब कठिनाई जल्दी मर जाने की 
क्या जाते हैं सदैव आप आउट होने के लिए
वही एक कहानी बार-बार पछताने की 
ठहर सकूं यदि इस संसार में कुछ और 
शायद कभी देखूं तस्वीर रन बनाने की 
हर बार जन्म लेता हूं, क्रिकेट देखने के लिए 
आत्मा प्यासी है तुझे बेहतर देख पाने की 
यदि दिल की हो जाए तो बच जाऊं पुनर्जन्म से 
हाय, यह तकलीफ बार-बार आने और जाने की 


कहने का आशय यही है कि इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में आपको जोरदार भारतीय टीम देखने को शायद मिलेगी। आपका कर्तव्य है, निरन्तर जन्म लेते रहें। हमारे अनेक पूर्वज यह हसरत लिए मर गए। यदि हमें भी जाना पड़े, तो क्या बात है। अत: हे राष्ट्र की आत्मा. बस अब मत रो। पराजितों का स्वागत कर। देख, तेरे द्वार पर विदेशी मोजे पहने कौन खड़ा है। उठ पगले, इनका स्वागत कर। 

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