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एक हमारे परिचित डॉक्टर निमोनिया का इलाज बहुत अच्छा करते हैं। उनकी यही कामना होती है कि उनके पास जो भी मरीज आए, वह निमोनिया का हो, मगर ऐसा हमेशा नहीं होता। कुछ मरीज मलेरिया, फ्लू या इस किस्म की बीमारियों के भी होते हैं। डॉक्टर साहब उनके रोग बदलकर, बढ़ाकर निमोनिया कर देते हैं और जब निमोनिया हो जाता है तब उसे तुरंत भला-चंगा कर देते हैं।
प्रशासन की स्थिति भी कुछ इसी तरह है। प्रशासकों का ख्याल है कि वे ‘लॉ एंड आर्डर’ की स्थिति को बहुत बेहतर संभाल सकते हैं और उन्हें नियंत्रण करना आता है। अत: कामना करते हैं कि प्रत्येक स्थिति 'लॉ एंड ऑर्डर' की बन जाए। यदि न बन रही है, तो वे उसे बना देते हैं अथवा बन जाने की पूरी स्थितियों को प्रोत्साहित करते हैं। जब वह पक जाती है, सौ टका 'लॉ एंड ऑर्डर' की हो जाती है। तब वे उसे नियंत्रित करते हैं, शांत करते हैं, शमन करते हैं- चाहे इसके लिए उन्हें गोली ही क्यों न चलानी पड़े। प्रशासन और उन डॉक्टर साहब में अंतर यह है कि वहां मरीज अंतत: भला-चंगा हो जाता है, यहां नए रोग पनप जाते हैं।
महत्व विषय और समस्या का नहीं है। शिक्षा हो, महंगाई हो, वेतन-वृद्धि हो, कुछ हो। महत्व स्थान का भी नहीं है। बाजार हो, जंगल हो, विश्वविद्यालय हो, जो धोबी पछाड़ दांव प्रशासन जानता है, उसे चले बिना उसका पहलवानी अहं तृप्त नहीं होता। कोई आश्चर्य नहीं यदि हिंदुस्तानी लोगों की एक बड़ी भीड़ यह पता लगाने के लिए जमा हो जाए कि ब्रह्मा और माया में अंतर क्या है, तो पुलिस उन पर डंडे बरसाकर, आंसू गैस छोड़कर वाकई बता दे कि अंतर क्या है? प्रशासन का स्वभाव है कि वह छोटी समस्या की उपेक्षा करता है और बड़ी समस्या को नियंत्रित करने का यत्न करता है।
उसके बड़प्पन की परिभाषा यही है कि वह बड़ी समस्या से जूझे। ऐसी स्थिति में छोटी समस्याओं के सामने दो विकल्प रहते हैं : एक यह कि वे स्वयं समाप्त हो जाएं इसलिए कि शासन उन्हें सुलझाने को खाली नहीं और दूसरा यह कि वे बड़ी समस्या बन जाएं, ताकि शासन की उन पर नजर जाए। यही होता है। कल जो डेपुटेशन दरवाजे पर खड़ा था और उपेक्षा और अपमान पीता चला गया था, दूसरे दिन जुलूस बनकर सड़क पर आ जाता है। छोटी समस्या बड़ी हो जाती है, निमोनिया हो जाता है और तब प्रशासन के विशेषज्ञ उसे सुलझाने के लिए सारे पुराने नुस्खे आजमाने लगते हैं।
मजा यह है कि समस्या बड़ी होने पर प्रशासन के पंडित पहली मांग करते हैं कि समस्या को छोटी कीजिए। डेपुटेशन से बातचीत टालने वाले लोग जुलूस को बीच रास्ते में रोककर कहते हैं कि हम आपके प्रतिनिधियों से चर्चा करना चाहते हैं। पूरा जुलूस समाप्त कर दीजिए और अपने कुछ लोगों को हमसे बात करने के लिए भेजिए। आए नाग का पूजन टालेन वाले बांबी पूजने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। जब विवेकहीन और खतरनाक मानकर उस पर परंपरा से मान्य वे ही दांव लगाने लगता है जो 'लॉ एंड ऑर्डर' बनाए रखने की पुरानी बरहखड़ी में लिखे हुए हैं। घोषणा, लाठी, अश्रुगैस, गोली और घटना पर सरकारी बयान की हाय, किस मजबूरी में बंदूकें उठाई हैं हमने !
आजादी मिलने के इतने वर्षों बाद तक भीड़ और प्रशासक के संबंध वैसे ही हैं, जैसे अंग्रेजों के जमाने में थे। तब हिंदुस्तानियों की भीड़ साम्राज्यवाद को साक्षात खतरा लगती थी मानो भीड़ नहीं आ रही हो, मृत्यु आ रही हो और वे आत्मरक्षा के हर उपलब्ध शस्त्र ले भीड़ को तोड़ने लगते थे। आज भी उसी परिभाषा के तहत वे ही भय हैं। देशवासी आज भी भीड़ हैं। समूहबद्ध होने पर अपने ही वोटर नेता को खतरनाक लगने लगते हैं और वह उन पुराने हथियारों का इस्तेमाल इतनी फुर्ती से करने लगता है मानो लोग उसका सिंहासन छीनने आ रहे हों। उन क्षणों में भारतीय प्रशासक युद्ध अंग्रेज हो जाता है- 'फायर'! तब प्रशासक की योग-साधना का वह उच्च बिंदु आ जाता है जिसे 'लॉ एंड ऑर्डर' की पुरानी शब्दावली में स्थिति पर नियंत्रण कहते हैं। चुप्पी हो, सुनसान हो, लाश हो- इससे अधिक शांत और नियंत्रित स्थिति क्या होगी? ऐसे में आप शासन को बधाई दे सकते हैं। 'लॉ एंड ऑर्डर' हो गया।
(राजकमल प्रकाशन से हाल में आई किताब ‘और... शरद जोशी ‘ से)