राम नाम की ऐसी भक्ति शायद ही आपको कहीं और देखने को मिले, जैसा छत्तीसगढ़ के रामनामी संप्रदाय में देखने को मिलता है। यहां के लोग अपने पूरे शरीर पर राम नाम लिखवाते हैं। यह उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। एक ऐसी संस्कृति, जिसमें राम नाम को कण-कण में बसाने की परंपरा है। अब आप सोच रहे होंगे कि यहां के लोग आखिर ऐसा क्यों करते हैं? तो चलिए बताते हैं इसकी वजह...
छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा के एक छोटे से गांव चारपारा में एक दलित युवक परशुराम ने साल 1890 के आसपास रामनामी संप्रदाय की स्थापना की थी। 100 सालों से भी ज्यादा लंबे वक्त से छत्तीसगढ़ के रामनामी समाज में एक अनोखी परंपरा चली आ रही है। इस समाज के लोग पूरे शरीर पर राम नाम का टैटू बनवाते हैं, लेकिन न मंदिर जाते हैं और न ही मूर्ति पूजा करते हैं। इस तरह के टैटू को स्थानीय भाषा में गोदना कहा जाता है।
रामनामी जाति के लोगों की आबादी तकरीबन एक लाख है और छत्तीसगढ़ के चार जिलों में इनकी संख्या ज्यादा है। सभी में टैटू बनवाना एक आम बात है। हालांकि समय के साथ टैटू को बनवाने का चलन कुछ कम हुआ है। रामनामी जाति की नई पीढ़ी के लोगों को पढ़ाई और काम के सिलसिले में दूसरे शहरों में जाना पड़ता है, इसलिए ये नई पीढ़ी पूरे शरीर पर टैटू बनवाना पसंद नहीं करती। इस बारे में वहां के लोग बताते हैं, आज की पीढ़ी इस तरह से टैटू नहीं बनवाती। ऐसा नहीं है कि उन्हें इस पर विश्वास नहीं है। पूरे शरीर में न सही, वह किसी भी हिस्से में राम-राम लिखवाकर अपनी संस्कृति को आगे बढ़ा रहे हैं।
इस समाज में पैदा हुए लोगों को शरीर के कुछ हिस्सों में टैटू बनवाना जरूरी है। खासतौर पर छाती पर और वो भी दो साल का होने से पहले। टैटू बनवाने वाले लोगों को शराब पीने की मनाही होती है। साथ ही उन्हें रोजाना राम नाम बोलना भी जरूरी है। ज्यादातर रामनामी लोगों के घरों की दीवारों पर भी राम-राम लिखा होता है। इस समाज के लोगों में राम-राम लिखे कपड़े पहनने का भी चलन है और ये लोग आपस में एक-दूसरे को राम-राम के नाम से ही पुकारते हैं।
बताया जाता है कि रामनामियों की पहचान राम-राम का गुदना गुदवाने के तरीके के मुताबिक की जाती है। जैसे की शरीर के किसी भी हिस्से में राम-राम लिखवाने वाले रामनामी। माथे पर राम नाम लिखवाने वाले को शिरोमणि। और पूरे माथे पर राम नाम लिखवाने वाले को सर्वांग रामनामी और पूरे शरीर पर राम नाम लिखवाने वाले को नखशिख रामनामी कहा जाता है।
रामनामी न तो मंदिर जाते हैं और ना ही मूर्तियों की पूजा करते हैं, लेकिन ये लोग संतों की आध्यात्मिक परंपरा में वे रचे-बसे हैं। शुद्ध शाकाहारी व नशा जैसे व्यसनों से दूर, हिंदू समाज की तिलक-दहेज जैसी परंपरा के कट्टर विरोधी इस संप्रदाय के अधिकांश लोग खेती करते हैं और बचे हुए समय में राम भजन का प्रचार। इस संप्रदाय में किसी भी धर्म, वर्ण, लिंग या जाति का व्यक्ति दीक्षित हो सकता है।
रामनामी समाज ने कानूनन रजिस्ट्रेशन कराया है और डेमोक्रेटिक तरीके से उनके चुनाव हर 5 साल के लिए कराए जाते हैं। आज कानून में बदलाव के जरिये समाज में ऊंच-नीच को तकरीबन मिटा दिया गया है और इन सबके बीच रामनामी लोगों ने बराबरी पाने की उम्मीद नहीं खोई है। इस संप्रदाय के कुछ लोगों का कहना है कि अब लोग धर्म-कर्म से ज्यादा दिखावे में लगे हुए हैं।
दरअसल, इस समुदाय के लोगों की यह अनोखी परंपरा भगवान की भक्ति के साथ ही सामाजिक बगावत के तौर पर भी देखी जाती है। कहा जाता है कि 100 साल पहले गांव में हिंदुओं के ऊंची जाति के लोगों ने इस समाज को मंदिर में घुसने से मना कर दिया था। इसके बाद से ही इन्होंने विरोध करने के लिए चेहरे सहित पूरे शरीर में राम नाम का टैटू बनवाना शुरू कर दिया। शरीर पर बने टैटू को भगवान का किसी खास जाति का ना होकर सभी के होने की बात से जोड़ते हैं।