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'उपाधि' ऐसी आपदा जो मरने पर ही छूटती है...

प्रतापनारायण मिश्र, मशहूर व्यंग्यकार Published by: Ayush Jha Updated Sun, 02 Jun 2019 04:26 PM IST
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प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर - फोटो : amar ujala
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यद्यपि जगत में और भी अनेक प्रकार की आधि-व्याधि हैं, लेकिन उपाधि सबसे भारी छूत है। सब आधि-व्याधि यत्न करने से टल भी जाती हैं पर यह ऐसी आपदा है कि मरने ही पर छूटती है। छूटती भी क्या है, नाम के साथ तो मरने के बाद भी लगी रहती है। हां, मरने के बाद सताती नहीं है। यदि मरने के पीछे भी आत्मा को कुछ करना-धरना तथा आना-जाना या भोगना पड़ता होगा, तो हम समझते हैं उस दशा में भी यह बीमारी पीछा ना छोड़ती होगी।
दूसरी आपदा छूट जाने पर तन और मन प्रसन्न हो जाते हैं, पर यह ऐसा गुड़भरा हंसिया है कि न उगलते बने, न निगलते बने। उपाधि लग जाने पर उसका छुड़ाना कठिन है। यदि छूट जाए तो जीवन को दुखमय कर दे। संसार में थू-थू हो। आज हमारे बहुत से भाइयों के पास न विद्या, न बल, न धन कुछ भी बाकी नहीं रहा, केवल उपाधि ही मात्र शेष रही है। ककहरा भी नहीं जानते पर द्विवेदी, चतुर्वेदी, त्रिवेदी, त्रिपाठी आदि की उपाधि मिली है। पर इस उपाधि के चक्कर में बहुत से उन्नति के कामों से वंचित हो रहे हैं। न विलायत जा सके न एक-दूसरे के खा सके, न छोटा-मोटा काम करके घर का दारिद्र मिटा सके। परमेश्वर न करे, यदि इस दीन दशा में कोई कन्या पैदा हो गई, तो और भी कोढ में खाज हुई। घर में धन न ठहरा, बिना धन बेटी का ब्याह होना कठिन है। किसी कमतर को ब्याह दें तो नाक कटती है। न ब्याहें तो इज्जत को बट्टा लगने का डर है। यह सब आफतें केवल उपाधि के कारण हैं। 

 
आज आप पंडित जी, बाबू जी, लाला जी, शेख जी आदि कहलाते हैं, बड़े आनंद में हैं। चार जजमानों को आशीर्वाद दे आए और छोटा-मोटा धंधा या दस-पांच की नौकरी कर ली, परमात्मा खाने पहनने को देता रहेगा। खाइए, पहनिए, पांव पसार कर सोइए, न ऊधव के लेने, न माधव क देने। पर यदि प्रज्ञा, विद्यासागर, बीए, एम.ए. आदि उपाधि चाहें, तो किसी कालेज में नाम जाना पड़ेगा, परदेश जाना पड़ेगा, 'नींद नारि भोजन परिहरही' का नमूना बनना पड़ेगा। इसके बाद पांच-सात बरस में-उपाधि मिल जाएगी। जब उपाधि मिल गई, तो घर में चाहे खाने को हो न हो, लेकिन बाहर बाबू बनके ही निकलना पड़ेगा। चाहे भूखों मरना पड़े, पर कोई धंधा नहीं करते। नौकरी भी जब उपाधि के लायक मिलेगी तभी करें, नहीं तो वही इज्जत का बट्टा।

 
इसके अलावा कुछ उपाधियां सरकार से मिलती हैं। यदि उनकी भूख हो, तो हाकिमों की खुशामद तथा गौरांगदेव (ब्रिटिश) की उपासना में कुछ दिन तक तन, मन, धन से लगे रहिए। कभी आप के नाम में भी सीएसआई अथवा एबीसी जैसे किसी अक्षर का पुछल्ला लग जाएगा अथवा राजा, रायबहादुर, खां बहादुर अथवा महामहोपाध्याय की उपाधि मिल जाएगी। पर यह न समझिए कि राजा कहलाने के साथ कहीं की गद्दी भी मिल जाएगी अथवा सचमुच के राजा बन जाएंगे। हां, मन में समझे रहिए कि हम भी कुछ हैं, पर उपाधि की रक्षा के लिए कपड़ा-लत्ता, सवारी-शिकारी, हजूर की खातिरदारी आदि में घर के बर्तन-भांड़े भी बेचने पड़ सकते हैं। अपने धर्म, कर्म, देश, जाति आदि से भी सामना करना पड़ेगा, क्योंकि अब तो आपके पीछे उपाधि लग गई है। इसलिए ही तो कहते हैं, उपाधि बड़ी व्याधि। उपाधि पाना अच्छा है, यह बात सही है। लेकिन यह अच्छा वैसा ही है, जैसे बैकुंठ जाना, पर गधे पर चढ़ के!
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