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हिंदुस्तान के खेल प्रेमियों के लिए 20वीं सदी के 17वें साल की 18वीं तारीख... खुशी और गम बराबर मात्रा में ले कर आई। हमारे पास हंसने और रोने के लगभग बराबर कारण होते हैं लेकिन हम दुखी ज्यादा और खुश बहुत कम हैं। रविवार को भारत और पाकिस्तान के बीच 2 रोमांचक मैच थे। एक तरफ चकाचौंध रौशनी के नीचे क्रिकेट खेला जा रहा था तो दूसरी तरफ अनदेखी के अंधेरे में हॉकी का मैच हो रहा था। क्रिकेट में ‘हम’ हार गए और हॉकी में ‘हम’ जीत गए।
चैंपियंस ट्रॉफी के फाइनल मुकाबले में भारत की क्रिकेट टीम को शर्मनाक मिली तो वहीं हॉकी के वर्ल्ड लीग के सेमीफाइनल मुकाबले में भारतीय टीम ने पाकिस्तान को 7-1 से रौंद डाला। मजेदार बात ये रही कि हॉकी की टीम ने न सिर्फ पाक की तबियत से धुलाई की बल्कि बांह पर काली पट्टी बांध कर उनकी नापाक सेना की काली करतूतों को याद भी दिलाया।
अमूमन ऐसा होता है कि हम एक हार को दूसरी जीत से हजम कर जाते हैं लेकिन क्रिकेट और हॉकी के नतीजों ने इस मिथक के उलट रंग दिखाए। संवेदनाओं के समुद्र में मातम की लहरें जीत की खुशी को रौंदते हुए किनारों पर पहुंच रही हैं। पाकिस्तान से निपटने के बाद अब हम क्रिकेट और हॉकी के बीच में चल रहे इस मैच में फंस गए हैं। जहां हर पल क्रिकेट की हार, हॉकी की जीत को परास्त कर रही है।
खेल को खेल की परिधि तक ही रहने दिया जाता तो शायद ऐसा नहीं होता। हमने इन खेलों को देशभक्ति, विकास, जीडीपी और न जाने किन किन तराजुओं पर तौलना शुरू कर दिया। परिणाम हम सबके सामने हैं। पाकिस्तान एक मैच हार कर भी हमारी जीत को चिढ़ा रहा है। हम भी वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं जैसा पाकिस्तान चाहता है। वो हार कर भी जीत का जश्न मना रहे हैं और हम जीत कर भी हार पर आंसू बहा रहे हैं।
सोशल मीडिया से लेकर नुक्कड़ों, चौराहों और टीवी के सूट-बूट वाली डिबेटों तक हमारी हार को याद दिलाया जा रहा है। हम उस बंदर की तरह बर्ताव करने लगे हैं जो मदारी के डमरू पर गुलाटियां खाता है। जैसे-जैसे हम आधुनिक होते जा रहे हैं वैसे-वैसे बौद्धिक क्षमता घटती जा रही है। सही और गलत का फैसला हम अपने ट्वीटर और फेसबुक की टाइमलाइन को स्क्रॉल करने के बाद लेते हैं। तो मेहरबानों और कदरदानों … होश में आओ…. हार का गम नहीं, जीत का जश्न मनाओं… वैसे भी किसी महान शख्स ने कहा है कि जीत और हार खेल का हिस्सा है। तो भईया खेल खत्म और पैसा हजम!