विस्तार
कोई मरे तो कोई मल्हारें गाए! सांसद और विधायक के बीच जूतम पैजार ने एकाएक जूतों के व्यापार में उछाल ला दिया है, लोग पहनने के लिए कम और सांसदों, विधायकों को मारने के लिए जूते खरीदने में जुट गए हैं। वैसे भी सत्ता दल चुनावी माहौल में जूते से जीत का बिगुल बजाकर अपना बूथ सबसे मजबूत करते हुए पाए गए हैं। जूते मारने के भी सबके अपने -अपने स्टाइल हैं। जूता मार राजनीति को देखते हुए उम्मीद है जूतों के कारोबार में भी चार चांद लग जाएंगे।
अभी लोग आपस में ही एक-दूसरे को जूते मार रहे हैं, फिर वे अपनी पसंद भी बताने लगेंगे की उन्हें फलां जगह इस कंपनी के जूते से पीटा जाए या पिटवाया जाए। इस तरह से एक नए व्यापार का चलन भी बढ़ने की प्रबल संभावना है। लोग जूते मारने वाले हायर करने लगेंगे फिर वे उनकी तरफ से जूते मारा करेंगे। जूते मारने की वैल्यू भी तय कर दी जाएगी। मसलन 100 रुपये में एक दर्जन या 500 के छह, यह जूते की कंपनी और पिटने वाले कि शख्सियत पर निर्भर करेगा।
आदमी जितना ऊंचे रसूख वाला होगा उसे जूते मारने की बोली बढ़ती चली जाएगी। वैसे चाहे राजनीति हो या आम जिंदगी हमारे समाज में बातों के जूते मारने में सबको पैदाइशी महारत हासिल है। देश की राजनीति में कई बार कई नए तरीके के जूते आते हैं और चल निकलते हैं। कुछ गालीनुमा जूते इतना चले हंै कि देश से विदेश तक इसने ख्याति के झंडे गाड़ दिए फायदा दोनों का ही हुआ, मारने वाले का भी और पिटने वाले का भी। अतः कई पार्टियों ने अपना जूता मारक ब्रांड अम्बेसडर भी नियुक्त कर दिया है।
इसका काम है कि सुबह से शाम तक अपने विरोधियों को जूते लगाते रहना। सुनने में तो यहां तक आया है कि वे इस बार इसी तरह अपना मजबूत होने का दावा ठोकेंगे। तब देश में वे ही कंपनियां रह जाएंगी जो बातों के जूते चलाने में माहिर होंगी । जिन्हें खुद को सत्ता में बनाए रखने के लिए ठगबंधन से भी गुरेज नहीं होगा । मजा यह है कि यहां माल के हिसाब से खरीदार तय किए जाते हैं। जो जितने में बिक जाए उसी को कंपनी खरीदने को आतुर दिखती है। जूते खाने वाले तो इतने तेज होते हैं कि मरे हुए आदमी के भी सबूत मांगते हैं,भाई बताओ हमारा आदमी मरा तो कब मरा और कैसे अब इसे साबित करो, तभी मानेंगे की मौत हुई है।