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आज की फिरकी: अफगानिस्तान में मानवाधिकारों के होते हनन को लेकर क्यों शांत है यूएन? क्या सच में गैर प्रासंगिक हो चला है संयुक्त राष्ट्र संघ

टीम फिरकी, नई दिल्ली Published by: संकल्प सिंह Updated Fri, 10 Sep 2021 12:54 PM IST
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अफगानिस्तान में मानवाधिकारों के होते हनन को लेकर क्यों शांत है यूएन
अफगानिस्तान में मानवाधिकारों के होते हनन को लेकर क्यों शांत है यूएन - फोटो : एजेंसी, istock
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हमारे यहां एक कहावत है हाथी के दांत खाने के कुछ और हैं दिखाने के कुछ और। अफगानिस्तान के ताजा तरीन हालात देखने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थिति उसी हाथी की तरह है, जिसके खाने के दांत कुछ और दिखाने के कुछ और हैं। अब जब आतंकियों की सरकार अफगानिस्तान में बन चुकी है और खुलेआम महिलाओं के अधिकारों को धार्मिक कट्टरवाद की बंदूकों से कुचला जा रहा है। ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी संयुक्त राष्ट्र संघ तालिबान और उसकी करतूतों पर चुप है।

इस कारण संयुक्त राष्ट्र संघ की चुप्पी को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। ये पहला मौका नहीं है जब यूएन सवालों के घेरे में कैद है। इससे पहले भी जब रवांडा में दिल को दहला देने वाला नरसंहार हुआ था, उस समय भी उसकी भूमिका पर कई प्रश्न उठे थे। तो भैया सवाल ये है कि यूएन का काम केवल सम्मेलनों का आयोजन करके वहां पर मानवता दिवस, मानवाधिकार दिवस, महिला अधिकार दिवस आदि आदि दिवसों को सेलिब्रेट करना है? या जमीनी स्तर पर भी ये लोग कुछ करते हैं? आइए जानते हैं -

आतंकियों की खुली सरकार अफगानिस्तान में बन चुकी है। एक तरफ जहां मंगल ग्रह और चांद की सतह पर विश्व की पहली महिला को उतारने की योजना बन रही है। वहीं दूसरी तरफ उसी दुनिया में एक ऐसी जगह भी है, जहां पर आजादी के साथ महिलाओं को घर से बाहर नहीं जाने दिया जा रहा। मानवाधिकारों को सरेआम यहां पर कुचला जा रहा है। आने वाले कुछ समय में अफगानिस्तान आतंकवादियों का फैक्ट्री बनने वाला है।   

ऐसे कठिन हालातों में तालिबान के विषय में यू एन चुप है। उसकी ये चुप्पी उसकी प्रासंगिकता को लेकर सवाल पैदा कर रही है। क्या दुनिया को वाकई संयुक्त राष्ट्र संघ की जरूरत है? या ये अब गैर प्रासंगिक हो चला है। बड़े बड़े मंचों पर मानवाधिकारों का राग अलापने वाला ये संगठन आज क्यों नहीं तालिबान पर एक्शन ले रहा?  

प्रश्न बहुत सारे हैं। आज अफगानिस्तान के मौजूदा हालात देखने के बाद एक बहुत बड़े षड्यंत्र की बू आ रही है। गौरतलब बात है कि साल 2018 में जब डोनल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ दोहा में पीस डील की। उस दौरान तालिबान का प्रभाव काफी कम हो चुका था। इसके अलावा अफगानिस्तान की स्थिति और उसकी सेना भी धीरे-धीरे मजबूत हो रही थी।   

अचानक हुई इस डील ने बने बनाए महल को उजाड़ दिया, रही सही कसर जो बाइडन ने पूरी कर दी। ऐसे में अमेरिका के जाने के बाद चीन और रूस अफगानिस्तान के इस निर्वात में अपनी जगह को तलाश रहे हैं। आपको बता दें कि अफगानिस्तान लिथियम आयन का बहुत बड़ा स्त्रोत है। वहीं दूसरी ओर चीन आने वाले वक्तों में अपने आपको वैश्विक स्तर पर इलेक्ट्रिक व्हीकल प्रोडक्शन का मसीहा बनते देखना चाहता है। ऐसे में उसके लिए अफगानिस्तान में एक बहुत बड़ी संभावना दिख रही है।   

यही एक वजह है, जिसके चलते उसने अब तालिबान को फंडिंग करने की भी शुरुआत कर दी है। दस्तूर तो देखिए जरा इन आतंकियों का जिस इस्लामिक राष्ट्र और जिहाद के नाम पर उन्होंने अपनी सरकार को बनाया है। आज वही आतंकी उस चीन को अपना स्ट्रेटेजिक पार्टनर बता रहे हैं, जो उइगर मुस्लिमों पर अत्याचार को लेकर बदनाम है। अब आप सोच सकते हैं कि महत्वाकांक्षा किस चीज की है और किस चीज का इस्तेमाल किया जा रहा है।   

अफगानिस्तान की इस कठिन स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति इस बात की गवाही दे रही है कि अब यूएन गैर प्रासंगिक हो चला है। अगर सच में संयुक्त राष्ट्र संघ स्वतंत्र है और उसे मानवाधिकारों की परवाह होती,  तो अब तक वह जरूर अपनी ब्लू कैप वाली सेना अफगानिस्तान में उतार देता। पर ऐसा अब तक नहीं हुआ है। ऐसे में ये सवाल उठ रहे हैं कि यूएन भी अब बड़े बड़े देशों की कूटनीतिक और राजनीतिक मंशा का शिकार हो चुका है।

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