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रेप को लेकर एक कैब ड्राईवर का खुला ख़त!

shweta pandey/firkee.in Updated Wed, 14 Dec 2016 07:15 PM IST
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कैब ड्राईवर
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विस्तार

'दिल्ली' जो हजारों दिलों के सपने को पूरा करने वाला शहर है। एक ऐसा शहर जहां लाखों युवा उंचाई पाने जैसे अरमान को लेकर आते हैं। एक ऐसा शहर जहां हर क्षेत्र के कोने-कोने से लोग मिल जाएंगे। ये वही दिल्ली है जहां मै आयी थी तो घर वालों के दिल में एक खौफ़ था कि दिल्ली अनजान जैसे शहर में मै कैसे रहूंगी। ये वही दिल्ली शहर है जिसने 'दामिनी गैंग रेप' जैसे कांड को अंजाम दिया है। ख़ैर..

औरतों के प्रति समाज का रवैया बदलेगा कि नहीं, ये एक औरत और समाज दोनो पर निर्भर करता है। मुद्दे की बात ये है कि एक कैब ड्राईवर ने औरतों के साथ होने वाले रेप के बारे में अपना नज़रिया दिया है जो वाक़ई समाज के हर तबके को पढ़ना चाहिए....
 


मैं सिर्फ़ एक कैब ड्राइवर हूं, और मैने बहुत कम पढ़ाई की है। मुझे लाइफ का इतना अनुभव नहीं है कि किसी को उपदेश दे सकुं, लेकिन मेरे पास एक मैसेज है, जिसे मैं इस ओपेन लेटर एक माध्यम से सभी तक पहुंचाना चाहता हूं...

" मैं लगभग एक दशक पहले जिन्दगी को बेहतर बनाने का सपना लिए दिल्ली आया था। तब मैं 22 साल का युवा था, जिसने यूपी के फैज़ाबाद जिले के अपने छोटे से गांव से बहार कदम भी नहीं रखा था। मेरे पिता, जो एक किसान थे और समय-समय पर मजदूरी भी करते थे, ने हमेशा शिक्षा को महत्त्व दिया और हम तीनों भाई-बहनों को अपनी क्षमता के अनुसार पढ़ाया। लेकिन मैं कभी भी पढ़ाई में अच्छा नहीं था।

मैं कई बार अपनी परीक्षा में फेल हुआ और कई कक्षाओं में दोबारा पढ़ा, फिर मैंने किसी तरह दसवीं पास की। इसके बाद मैंने अपना हाथ कई कामों में ट्राई किया, मिस्त्री का काम, खेती करना, निकम्मों की तरह बैठे रहना और गांव की औरतों को घूरना। 


जब मैं 20 साल का था, मैंने ड्राइविंग सीखी और मेरे पिता ने फाइनली दिल्ली में जॉब करने के लिए भेज दिया। हालांकि, दिल्ली मेरे सपनो का शहर नहीं था। सुबह से लेकर देर रात तक महिलाएं और पुरुष हर तरफ घूमते रहते थे।
 

जब मैंने दिल्ली में ड्राइविंग शुरू की, मैंने शहर की औरतों की ज्यादा ओपेन बातचीत से अजीब फ़ील करता था। एक टर्न भी मिस होने पर वे मुझ पर चिल्लाने लगेंगी और चेंज न होने पर बहस करेगीं और मुझे तुम या तू कहकर संबोधित करेंगी। मैंने उन सभी महिलाओं को बदतमीज़ मान लिया, जैसा कि उनका बिहेवियर था, मेरे गांव की तुलना में।
 

मैं बुरी तरह दिल्ली के कल्चरल शॉक से आहात हुआ था और इसमें फंस गया था। किसी पुरुष से लड़ना अलग है, लेकिन औरत द्वारा नीचा दिखाया जाना अपमानजनक महसूस होता है। देर रात में पिकअप करने के दौरान छोटे कपड़े पहनी महिला पैसेंजर्स मेरी कार में आती थीं और आराम से आगे की सीट पर बैठ जाती थीं। इससे मुझे बहुत दिक्कत महसूस होती थी।
 

लेकिन ऐसा मैं उस वक्त था। जैसे-जैसे मैं इस शहर में रहने लगा और थोड़ा मेच्योर हुआ, मेरी मानसिकता तेजी से विकसित हुई।  मैंने महसूस किया कि औरतों को बदलने की ज़रुरत नहीं है। मुझे इस बदलाव की ज़रुरत है। मुझे अपनी छोटी सोच से बाहर आना होगा।
 

मुझे एक तरीका आया मॉडर्न माहौल के साथ एडजस्ट करने का। इस तरह से सोचकर देखिए- क्या आपको अजीब लगेगा यदि एक मेल अगली सीट पर आराम से बैठा है और आपसे बातें कर रहा है? क्या आप उस मेल को देखकर अपनी भौंहें उठाएंगे, फिर महिलाओं को देखकर आप ऐसा क्यों करते हैं? जैसे एक पुरुष है, वैसे ही एक महिला है। सबके साथ समान्य बर्ताव करें..."

जय हिंद 

शाहिल तोमर...


 


तुम्हारी सोच को सलाम.. हमारी तरफ से 100 सलामी। 

 Source: Hindustan Times
 
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