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अंडर 17 फीफा वर्ल्ड कप :ये हैं टीम इंडिया के ‘गुदड़ी के लाल’,कोई कारपेंटर का बेटा तो कोई दर्जी का...

Updated Sun, 24 Sep 2017 02:22 PM IST
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Fifa Under 17
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फीफा… खेल की दुनिया का सबसे बड़ा इवेंट होता है। हर स्पोर्ट्स पर्सन का सपना होता है कि वो इस बड़े इवेंट में अपने देश को रिपर्सेंट करे, इसके लिए बहुत सारी मेहनत, सपोर्ट और ढेर सारा पैसा चाहिए। बड़े-बड़े खिलाड़ी परिस्थितियों के आगे लड़खड़ा जाते हैं। दुनिया में ऐसे कुछ ही चैंपियन हैं जिन्होंने जिंदगी को हराकर मैदान में अपने कदमों को जमाया है। अंडर 17 फीफा विश्वकप में ऐसे ही कुछ गुदड़ी के लाल हैं जिन्होंने मैदान तक पहुंचने के लिए जिंदगी के हालातों को हराया है। आपको मिलवाते हैं उनसे,.... इनकी कहानी, आपके हौसले को उड़ान देगी। 

मणिपुर के अमरजीत को भारतीय टीम का कप्तान माना जा रहा है। अमरजीत के पिता कारपेंटर हैं और मां घर से 25 किलोमीटर दूर जाकर मछलियां बेचती है। एक अखबार से बात करते हुए अमरजीत ने कहा कि मेरे पापा किसान हैं लेकिन ऑफ सीजन में वो कारपेंटर का काम करते हैं। मां भी मछलियां बेचती है लेकिन न तो मम्मी ने और न ही कभी पापा ने.. कामों में हाथ बंटाने के लिए कहा। उन्होंने हमेशा मुझे एक ही काम करने के लिए कहा, जो मेरा दिल करता था। और वो था फुटबॉल खेलना। 

संजीव स्टालिन, टीम इंडिया में मिडफिल्डर पोजिशन के खिलाड़ी है। उनकी मां फुटपाथ पर कपड़े बेचा करती है। वो बताते हैं कि मुझे बचपन में कभी पता ही नहीं चला कि मेरे जूते कहां से आते हैं, मेरा घर कैसे चलता है। जब मैं बड़ा हुआ तो मुझे पता चला कि मेरी मां, मामा के साथ मिलकर फुटपाथ पर कपड़े बेचने का काम करती हैं। वो बताते हैं कि पिता बचपन से ही अपने कामों की वजह से बाहर रहते थे, इसलिए मां घर चलाने के लिए फुटपाथ पर कपड़े बेचने का फैसला किया।  मां ने मुझे मेरे पैशन पर ही ध्यान देने के लिए कहा। 

कोमल थातल भी सिक्किम से हैं। थातल विश्वकप में नंबर 10 की जर्सी पहनने वाले , जिसे लीजेंड खिलाड़ियों का नंबर कहा जाता हैं। वो बताते हैं कि एक वक्त में मेरे पास फुटबॉल खरीदने के भी पैसे नहीं थे। मैं फटे पुराने कपड़ों और प्लास्टिक से फुटबॉल बना कर खेलता था। मां और पिता… दोनों दर्जी का काम करते हैं, दोनों एक छोटी सी दुकान को चलाकर घर भी चलाते हैं और बेटे को फुटबॉल खेलने की आजादी भी देते हैं। कोमल इन दिनों गोवा में वर्ल्ड कप की तैयारियों में जुटे हुए हैं। वो बताते हैं कि मां-पिता अपने बजट में से पैसे निकालकर मेरे लिए किट खरीदा करते थे। तो कुछ अमीर दोस्त भी सपोर्ट करते थे और वो जूते-टीशर्ट दिया करते थे। 

कोलकाता के जितेंदर सिंह के पिता चौकीदार हैं और मां दर्जी का काम करती हैं। जितेंदर सिंह ने भी फुटबॉल खेलने के लिए काफी मुश्किलों का सामना किया। लेकिन आज वो अपने मां-बाप के सपने को साकार करने जा रहे हैं। 

अक्सर हम संसाधनों की कमी का हवाला देकर ये बहाना बनाते हैं कि अगर वक्त ने साथ दिया होता तो आज हम कहीं और होते। परेशानियां हर किसी की जिंदगी में आती हैं लेकिन जो हर पड़ाव पर जीत हासिल करे, असली चैंपियन वही होता है।  

Source- Dainik Bhaskar

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