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खुदीराम बोस जो महज़ 18 साल की उम्र में देश की आज़ादी के लिये फांसी पर चढ़ गए

Rahul Ashiwal Updated Tue, 24 Jan 2017 12:56 PM IST
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fg - फोटो : google
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भारत की आज़ादी के क्रांतिकारी शहीद होने के लिए हमेशा बैचेन ही रहते थे। बेहद कम उम्र में भी वो फांसी के फंदे पर झुलनें को तैयार रहते थे। ऐसा लगता था मानो उनमें शहीद होने के लिए हौड़ लगी रहती थी। भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास ऐसे ही क्रांतिकारियों के सैकड़ों साहसिक कारनामों से भरा पड़ा है। ऐसे ही क्रांतिकारियों की सूची में एक नाम 'खुदीराम बोस' का है। खुदीराम बोस भी उनमें से ही एक थे। वे महज़ 18 साल की उम्र में हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिये फांसी पर चढ़ गए।

खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 ई. को बंगाल में मिदनापुर ज़िले के हबीबपुर गांव में त्रैलोक्य नाथ बोस के यहां हुआ था। खुदीराम बोस जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था। सन् 1905 ई. में बंगाल का विभाजन होने के बाद खुदीराम बोस देश के मुक्ति आंदोलन में कूद पड़े थे। सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया था।

खुदीराम बोस राजनीतिक गतिविधियों में स्कूल के दिनों से ही भाग लेने लगे थे। भारत माता को आज़ाद कराने की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और जंग-ए-आज़ादी में कूद पड़े। वह रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने।

कलकत्ता में उन दिनों ‘किंग्सफोर्ड चीफ प्रेंसीडेसी मजिस्ट्रेट’ था। वह बहुत सख्त और क्रूर अधिकारी था। वह अधिकारी देश भक्तों, विशेषकर क्रांतिकारियों को बहुत तंग करता था। उन पर वह कई तरह के अत्याचार करता। क्रान्तिकारियों ने उसे मार डालने की ठान ली थी। ‘युगान्तर क्रांतिकारी दल’ के नेता ‘विरेन्द्र कुमार घोष’ ने घोषणा की कि किंग्सफोर्ड को मुज़फ्फरपुर में ही मारा जाएगा। इस काम के लिए 'खुदीराम बोस' तथा 'प्रपुल्ल चाकी' को चुना गया।

एक दिन वे दोनों मुज़फ्फरपुर पहुंच गए। वहीं एक धर्मशाला में वे आठ दिन रहे। 30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्स फोर्ड और उसकी पत्नी एक क्लब में पहुंचे। रात के साढे आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे। उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी। खुदीराम बोस तथा उसके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उस पर बम फेंक दिया। देखते ही देखते बग्घी के परखचे उड़ गए। उसमें सवार मां बेटी दोनों की मौत हो गई। क्रांतिकारी इस विश्वास से भाग निकले कि किंग्सफोर्ड को मारने में वे सफल हो गए है।

खुदीराम बोस और घोष 25 मील भागने के बाद एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचे। खुदीराम बोस पर पुलिस को इस बम कांड का संदेह हो गया और अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल चंद ने खुद को गोली मारकर शहादत दे दी, पर खुदीराम पकड़े गए। खुदीराम बोस को जेल में डाल दिया गया और उन पर हत्या का मुकदमा चला। अपने बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने तो किंग्सफोर्ड को मारने का प्रयास किया था। लेकिन उसे इस बात पर बहुत अफ़सोस है कि निर्दोष कैनेडी तथा उनकी बेटी गलती से मारे गए।

8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई। उन्होंने अपना जीवन देश की आज़ादी के लिए न्यौछावर कर दिया, जब खुदीराम शहीद हुए थे तब उनकी आयु 19 वर्ष थी। शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे उनके नाम की एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी।

Source: Bharat Discovery

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