Home Panchayat Harishankar Parsai Satire Andhvishwas Se Vaigyanik Drishti

हरिशंकर परसाई का व्यंग्य: अंधविश्वास से वैज्ञानिक दृष्टि

Updated Sun, 19 Nov 2017 04:58 PM IST
विज्ञापन
Harishankar Parsai
Harishankar Parsai
विज्ञापन

विस्तार

एक अच्छा व्यंग्यकार वो ही होता है जो हर बात के सभी पहलुओं को समझने का हुनर रखता है। व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई इस पैरामीटर पर बिल्कुल फिट बैठते थे। अंधविश्वास बनाम विज्ञान की लड़ाई पर परसाई जी ने एक सोच को जगह दी। 1985 में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उनकी किताब ‘ऐसा भी सोचा जाता है’ में उनके लेख ‘अंधविश्वास से वैज्ञानिक दृष्टि’ को जरूर पढ़ना चाहिए। इस लेख में उन्होंने अंधविश्वास के पीछे छिपी वैज्ञानिक दृष्टि को देख लिया था। प्रस्तुत व्यंग्य उनकी किताब से ऐसा भी सोचा जाता है से लिया गया है।  

मेरे एक मित्र को पीलिया हो गया था। वे अस्पताल में भर्ती थे। प्रभावशाली आदमी थे। सब डॉक्टर लगे थे। एक दिन मैं देखने गया तो पाया कि वे पानी की थाली में हथेलियां रखे हैं, और एक पण्डित मंत्र पढ़ रहा है। कार्यक्रम खत्म होने पर मैंने कहा-आप तो दो-दो इलाज करवा रहे हैं। एक एलोपेथी को और दूसरा यह जो पता नहीं कौन-सी ‘पैथी’ है। उन्होंने कहा- दोनों ही कराना ठीक है। परम्परा से यह चला आ रहा है। एलोपेथी तो अभी की है। मैंने कहा-परम्परा इसलिए पड़ी कि तब कोई वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति थी नहीं। थी भी, तो लोग उससे डरते थे। विश्वास नहीं करते थे। पर अब पूरी वैज्ञानिक जांच के बाद आपका इलाज हो रहा है। मगर आप अवैज्ञानिक परम्परा का पालन भी करते जाते हैं। आपका विश्वास है किसमें? आप किस चिकित्सा से अच्छे होंगे? 

मेरे उनके आत्मीय और खुले सम्बन्ध थे। वे बुद्धिमान आदमी थे। इसलिए इस तरह कह गया। वे सोचते रहे। फिर शान्ति से बोले-विश्वास तो मेरा कह लीजिए या अंधविश्वास- सब कुछ जानते हुए भी मेरे मन में यह खटका, शुरू से बना था कि कुछ यह भी करा लेना चाहिए। 

मैं अस्पताल में भर्ती था। मेरे कमरे में दो बिस्तर थे। एक पर मैं पड़ा था और दूसरे पर एक युवा इंजीनियर। हम लोगों में अच्छी बातचीत होती। मरीज के पिता भी सम्पन्न और शिक्षित थे। एक दिन उस मरीज के पिता एक पुरोहित को ले आए। साथ में पूजा का सामान भी था। वहां छोटा सा अनुष्ठान होने लगा। मरीज के पिता मेरी तरफ देखकर कुछ झेंपे और बोले-दवा के साथ दुआ भी होनी चाहिए। 

अनुष्ठान खत्म होने पर इन सज्जन में पुरोहित के हाथ में नोट दिए। उसने नोट गिने और उत्तेजित होकर कहा- यह क्या है? यह सत्तर रुपये हैं। आपने सवा सौ रुपये देने के लिए कहा था। इधर से ये तैश में बोले-कतई नहीं। आपने कहा था कि इच्छा अनुसार दे दीजिए। पुरोहित ने कहा- झूठ मत बोलिए। मैंने साफ कहा था कि सवा सौ लूंगा। दोनों काफी देर तक गर्म बहस करते रहे। आखिर 80 रुपये लेकर पुरोहित मुनमुनाते हुए चला गया। 

मैंने उस सज्जन से कहा- पुरोहित ने पहले मंगलकामना की थी। पर रुपये कम मिलने से वह आपके अमंगल की कामना करता चला गया। दोनों में से उसकी कौन सी बात असर करेगी? वह सोचने लगे। 

उनके लड़के ने बिस्तर पर से कहा- मैंने बाबू जी को बहुत समझाया कि यह मत कराइए। सज्जन ने भिन्न भाव से कहा- अरे बेटे, मैं क्या समझता नहीं हूं। हर मन में कहीं बात है कि यह भी करा लेना चाहिए। 

जिसे वैज्ञानिक स्वभाव और वैज्ञानिक दृष्टि कहते हैं, उसके विकसित होने में यही एक अटक है। अविज्ञान के युग में जो विश्वास, संस्कार और मन की प्रयासहीन क्रियाएं पड़ गई हैं, वे विज्ञान के ऊपर जाकर तत्काल प्रतिक्रिया कर देती हैं। 

विज्ञान के प्रोफेसर हैं। प्रयोगशाला में पूरी तरह वैज्ञानिक हैं। कोई अंध-विश्वास नहीं मानते। मगर प्रयोगशाला के बाहर सफलता के लिए साईं बाबा की भभूत, शनि-शांति, मंत्र-जाप कराते हैं। वैज्ञानिक तरीके से वे कार्य-कारण सम्बन्ध जानते हैं। वे पदार्थों के गुण जानते हैं। वे पदार्थों में परस्पर रासायनिक क्रिया जानते हैं। किसी वैज्ञानिक तरीके से वे भभूत और तरक्की का सम्बन्ध नहीं जोड़ सकते। वे खुद भी यह बता देंगे। पर फिर कहेंगे- भाई, संस्कारों से मन में यह बात पड़ी है कि इससे भी कुछ होता है। इस तरह विज्ञानी अविज्ञानी से लड़ता है और जीतता भी है। पर अंधविश्वास के मोर्चे पर विज्ञानी अविज्ञान से हार जाता है। 

चमत्कार होते हैं। दैवीय भी और प्राकृतिक भी। यह आदमी शुरू से मानता आ रहा है। इनमें मनुष्य का कोई हाथ नहीं होता। दो साल पहले मध्य प्रदेश और राजस्थान के पत्तों पर सांप के आकार बन गये थे। बात फैली कि नाग देवता पत्तों पर प्रकट हो गए हैं। वे सेवा मांगते हैं। नहीं करोगे तो काट लेंगे। तमाम लोग नाग से डरने लगे। उन पत्तों से डरने लगे। पत्तों के पास दूध के कटोरे रखे जाने लगे। भजन कीर्तन होने लगे। कहीं वनस्पति-विज्ञान की एक छात्रा ने सुन लिया। उसने बगीचे से उन्हीं नाग वाले पत्तों को तोड़कर सब्जी बनाकर परिवार को खिला दी। शाम को परिवार को बताया कि मैंने सबको नाग पकाकर खिला दिए और कुछ नहीं हुआ। तब कृषि विश्वविद्यालय के आचार्यों के बयान आये कि यह पत्तों की बीमारी है जिसमें सांप की आकृति बन जाती है। 

अप्रत्याशित हो सकता है। चमत्कार हो सकता है। कोई रहस्य शक्ति है जो कुछ कर देगी। यह भावना आदिम मनुष्य ने प्रकृति की शक्तियों और अपने वातावरण से पाई थी, क्योंकि उसे सृष्टि का, पदार्थों की प्रकृति का, अपने परिवेश का और कार्य कारण का कोई ज्ञान नहीं था। विज्ञान ने बहुत कुछ समझा दिया। जिसे ग्रह-नक्षत्र और जीवित देवी-देवता नहीं, पदार्थों के पिंड है। अंतरिक्ष में इनका मार्ग और गति तय है। पर कई साल पहले एक दिन आया, जब आठ ग्रहों के एक ही कक्षा में होने का योग था। यह मात्र भौतिक संयोग था। इसमें दैवी कुछ नहीं था। पर महीने-भर पहले से पुरोहित-वर्ग ने हल्ला मचाया कि महाभारत के काल के बाद अब ये योग आया है। बड़ा अनिष्टकारी हो सकता है। महीने भर पूजा-पाठ, कीर्तन, भजन होते रहे। अंधविश्वासियों का कितना पैसा इस बहाने लूट लिया गया, कोई हिसाब नहीं। प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू ने इस सबको गलत और अवैज्ञानिक बताया। पर इसका कुछ असर नहीं हुआ। वैसे ही अनुष्ठान चलते रहे। 

कुछ साल बाद इससे ज्यादा दिलचस्प घटना घट गई। एक अमेरिकी अंतरिक्ष प्रयोगशाला (स्काई लैब) मार्ग से भटक गई। वैज्ञानिकों ने घोषित किया कि स्काई लैब से सम्बन्ध टूट गया है और वह अनियंत्रित है। वह कहीं भी गिर सकती है। अनुमानित क्षेत्र भी वैज्ञानिक बता रहे थे पर हमारे यहां शाम से ही कीर्तन, भजन आदि होते रहे। लोग यह समझ रहे थे कि पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन से ‘स्काई लैब’ हमें छोड़कर कहीं और गिर जाएगी। अमेरिकी स्काई लैब हमारा आग्रह कैसे मान लेगी? स्काई लैब गिरी वायु की दिशा से, अंतरिक्ष की अपनी शक्ति से और पृथ्वी की आकर्षण की शक्ति से। 

आरम्भ में मनुष्य को ज्ञान नहीं था। प्राकृतिक क्रियाओं को नहीं समझता था। वृक्ष भी उसके लिए रहस्यमय था। सूर्य, चंद्र आदि भी रहस्यात्मक थे।पदार्थों और उनकी परस्पर प्रतिक्रियाओं के बारे में नहीं मालूम था। हर घटना उसके लिए चमत्कार थी। वह कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं जोड़ सकता था। वह आसाधारण घटना को उस शक्ति का किया हुआ मानता था, जिसे वह जानता ही नहीं है। उसने निष्कर्ष निकाला कि अलौकिक शक्तियां भला भी करती हैं और बुरा भी। इसलिए इन्हें प्रसन्न करो। इनके प्रतीक बनाओ। इस तरह अंधविश्वास चलता गया। 

विज्ञान ने धीरे-धीरे रहस्य खोलना शुरू किया। प्रमाण, तर्क, प्रयोग पर जोर दिया। प्रकृति के रहस्य एक के बाद एक खोले। कार्य-कारण सम्बन्ध बताये। सृष्टि के पदार्थों की घटनाओं की तर्कपूर्ण जानकारी दी। केवल ऐसे चमत्कार या ऐसे अंधविश्वास नहीं है, जिनका सम्बन्ध धर्म से हो। धर्म से अलग भी ऐसे अंधविश्वास हैं, चमत्कार हैं जिन्हें आदमी मानता है। हर असामन्यता को या उस घटना को जो समझ में नहीं आती, चमत्कार मान लिया जाता है। 

अन्धविश्वासियों को लेकर निहित स्वार्थ कायम हो गए थे। पूजा, दान आदि से कल्पित विपदा का श्रवण करके कर्मकांड चलाने वाले पुरोहित-वर्ग को इससे धन, सोना, दूसरी सामग्री मिलती थी। इस पुरोहित-वर्ग का प्रमुख आमदनी का जरिया अंधविश्वास हो गया। यह वर्ग इन्हें जीवित रखना चाहता था और उसने ऐसा किया। सामन्तवाद को भी प्रजा का अज्ञानी रहना फायदेमंद था। सामन्तवाद ने भी अंधविश्वासों का समर्थन किया। हर तर्क को, हर वैज्ञानिक समझ को ये वर्ग नकारने लगे।

साथ ही धर्म-सत्ता और परंपराओं के विश्वासों को कट्टरता से ग्रहण किया था। इस कट्टरता और अपरिवर्तनशील दृष्टि के दम पर धर्म सत्ता टिकी थी। ज्ञान, विज्ञान, अनुभव से ऊपर  धर्म-सत्ता अपने को मानती थी, जिसका आधार था उसमें आरोपित दैवीय शक्ति और ज्ञान। जहां-जहां वैज्ञानिक अविष्कार हुए धर्म सत्ता ने इसका विरोध किया। सबसे अधिक यूरोप में हुआ। वैज्ञानिक के शोध का परीक्षण चर्च के पादरी करते थे। वे अपने माने हुए अटल सत्य को ही मानते थे। वैज्ञानिकों को दण्ड दिया जाता था। बूनी और गैलेलियो इसके उदाहरण हैं। मध्य युग में चर्च विज्ञान के विरोध में खड़ी रही। अब हमारे जमाने में चर्च की इस सत्ता को नहीं माना जाता। 

इस तरह दुहरे व्यक्तित्व होने लगे। सोच वैज्ञानिक और आचरण अवैज्ञानिक। सोच भी अधबीच की। विज्ञान भी सही है और परम्परा से चली आती आस्था भी सही हो सकती थी। इसलिए पढ़े-लिखे भी वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं हो पाते। 

वैज्ञानिक दृष्टि के प्रचार के लिए बाहर समाज में एक आन्दोलन चलना चाहिए। ऐसा ही एक आन्दोलन लंका के प्रोफेसर कोकर ने चलाया था। उन्होनें सारे चमत्कारी देव पुरुषों को चुनौती दी थी। कुछ सालों से विज्ञान-जत्था निकलता है। इसमें कम है। मैं खुश हुआ अखबारों में यह पढ़कर कि दो शहरों में अंधविश्वास निवारण आंदोलन चल रहा है। इन लोगों ने लोगों को अपने हाथ में से भभूत निकालकर बता दी। इसी तरह लोकशिक्षण आंदोलन से लोगों में वैज्ञानिक दृष्टि आएगी। 

विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन
विज्ञापन

Disclaimer

अपनी वेबसाइट पर हम डाटा संग्रह टूल्स, जैसे की कुकीज के माध्यम से आपकी जानकारी एकत्र करते हैं ताकि आपको बेहतर अनुभव प्रदान कर सकें, वेबसाइट के ट्रैफिक का विश्लेषण कर सकें, कॉन्टेंट व्यक्तिगत तरीके से पेश कर सकें और हमारे पार्टनर्स, जैसे की Google, और सोशल मीडिया साइट्स, जैसे की Facebook, के साथ लक्षित विज्ञापन पेश करने के लिए उपयोग कर सकें। साथ ही, अगर आप साइन-अप करते हैं, तो हम आपका ईमेल पता, फोन नंबर और अन्य विवरण पूरी तरह सुरक्षित तरीके से स्टोर करते हैं। आप कुकीज नीति पृष्ठ से अपनी कुकीज हटा सकते है और रजिस्टर्ड यूजर अपने प्रोफाइल पेज से अपना व्यक्तिगत डाटा हटा या एक्सपोर्ट कर सकते हैं। हमारी Cookies Policy, Privacy Policy और Terms & Conditions के बारे में पढ़ें और अपनी सहमति देने के लिए Agree पर क्लिक करें।

Agree