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हरिशंकर परसाई का व्यंग्य: सदन के कूप में

Updated Wed, 06 Dec 2017 09:53 PM IST
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Harishankar Parsai
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व्यंग्यसम्राट हरिशकंर परसाई ने ‘सदन के कूप में’ शीर्षक का एक व्यंग्य लिखा जोकि उनकी किताब ‘ऐसा भी सोचा जाता है’ में छपा था। किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन द्वारा सन् 1985 में किया गया था। 

अंग्रेजी के अखबार में संसद के समाचार पढ़ता हूं, तो अक्सर पढ़ने को मिलता है, -सम मेंबर्स एसेम्बल्ड इन द वैल ऑफ द हाउस। ब्रिटिश संसदीय भाषा में अध्यक्ष के आसन के सामने की जगह को वैल ऑफ द हाउस कहते हैं। हमारे हिन्दी अनुवाद का हाल यह है कि अंग्रेजी के मुहावरे के शब्दों को अनुवाद कर देते हैं। अंग्रेजी में कहा जाता है- नाऊ वी आर गोइंग टू बिगिन अवर प्रोग्राम। मैंने सुना और पढ़ा है कि इसे हिन्दी में यों कहा-लिखा जाता है। अब हम अपना कार्यक्रम आरम्भ करने जा रहे हैं। जा कहीं नहीं रहे हैं। अंग्रेजी के ‘गोइंग’ का अर्थ वहां ‘जाना’ नहीं है।  हिन्दी में अर्थ होगा- अब हम हमारा कार्यक्रम आरम्भ करने वाले हैं। अंग्रेजी में लिखा जाता है- डॉ नामवर सिंह कम्स फ्रॉम ए विलेज इन ईस्टर्न यूपी। मैंने विद्वानों  द्वारा इसे ऐला लिखा पढ़ा है-- नामवर सिंह पूर्व उ. प्र. के गांव से आते हैं। क्या नामवर सिंह रोज गांव से दिल्ली आते हैं? असल में लिखना चाहिए- नामवर सिंह पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव के हैं। 

हिन्दी अखबारों में ‘वैल ऑफ द हाउस’ रूपान्तर किया जाता है, ‘अध्यक्ष की आसन्दी के सामने’। मेरा सुझाव है हमारी पद्वति के अनुसार इस जगह को ‘सदन कूप’ कहना चाहिए। लिखना चाहिए- कुछ उत्तेजित सदस्य सदन कूप में कूद गये। 

मगर अंग्रेजी-हिन्दी अनुवाद के विषय में नहीं लिख रहा हूं। मैंने देखा है कि तीस-चालीस साल पहले कभी-कभी ही सदस्य सदन कूप में कूदते थे। अब देखता हूं, दूसरे-तीसरे दिन सदन-कूप में कूदने लगे हैं। यानी बहुत सहासी या दुस्साहसी हो गये हैं। अध्यक्ष काम-रोको प्रस्ताव को मंजूरी नहीं दे रहे हैं, या कोई प्रश्न नहीं पूछने दे रहे हैं, तो उस पार्टी के सदस्य उठते हैं और शोर करते हुए सदन-कूप में कूद जाते हैं। मैं नहीं जानता कि दुनिया की किसी संसद में अध्यक्ष के रूलिंग या निर्णय की इतनी अवेहलना होती है। 

हरिशंकर परसाई ने अपने लेख में इतिहास की कई घटनाओं का जिक्र करते हुए लिखा कि हमारे प्रतिनिधि अपने मानसिक संतुलन को खो बैठते हैं। वो लिखते हैं…  
                                
घटनाएं इस तरह बहुत हो रही हैं। बिहार विधानसभा में राज्यपाल को अभिभाषण नहीं करने दिया। उन्हें सदस्यों ने घेर लिया और उनकी टोपी उछाल दी। महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना के एक गिरोह ने अध्यक्ष को सदन में नहीं घुसने दिया। 

इन सब घटनाओं से मालूम होता है कि हमारे प्रतिनिधियों का मानसिक सन्तुलन खो गया है। उन्हें तर्क और विचार की शक्ति पर भरोसा नहीं रहा। कण्ठ-शक्ति, भुजा शक्ति पर भरोसा आ गया है। शालीनता कम हो गई। तनाव अधिक है। असहनशीलता आ गई है।

अपने लेख में उन्होंने इन्दिरा गांधी के एक विवाद का भी जिक्र किया, वे लिखते हैं। 

एक विवाद शाह सऊद द्वारा इन्दिरा गांधी को भेंट किये गये हीरों के हार पर उठा था। इस पर डॉ लोहिया ने काफी उग्रता से पूछा कि वह हार कहां हैं। दो-तीन दिनों तक बहस चली। तब एम ए डांगे ने अपने भाषण के आरम्भ में ही कहा- मैं उनमें से नहीं हूं जो लगातार प्रधानमंत्री के गले को देखते रहते हैं। मैं उनके गले के ऊपर देखता हूं कि उनके दिमाग में क्या चल रहा है। 

अपने लेख में परसाई जी ने सदन की विनोदशीलता के भी एक वाकये का उल्लेख किया। वे लिखते हैं। 

गुरुदयाल सिंह ढिल्लों में विनोदशीलता थी। किसी भाषण पर दूसरी पार्टी के सदस्य ने बड़े क्रोध में कहा- इनकी बातों से हमारे हृदय में आघात पहुंचता है।  ढिल्लों ने कहा- सदस्य ऐसी बात न कहें जिनसे इस सदस्य के कोमल हृदय को आघात लगे। एक सदस्य ने शिकायत की-- संसद सदस्यों के हॉस्टल का खाना खाते-खाते तो मेरी तबियत खराब हो गई। ढिल्लो ने कहा आप मेरे घर में रह सकते हैं। दूसरे सदस्य ने तपाक से कहा- ही वांट्स हास्पिटल नॉट हॉस्पिटेलिटी (उन्हें अस्पताल चाहिए, मेजबानी नहीं)। 

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