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हम तो कुछ समझते ही कहां हैं भइया! चुनावी वादे और नेताओं की जुबानी जंग का कनेक्शन जिसने भी समझा माथा ही पकड़ लिया। नेताओं की जमात में अब शायद ही कोई होगा जो अपनी खामियों को सार्वजनिक तौर पर बखान करता होगा। नेताओं ने जनता को और कुछ दिया हो या न दिया हो पर वादों-वचनों का पिटारा हमेशा थमाया।
खैर! वादों की भी अपनी दुनिया है। 'वादा तेरा वादा' गाना तो आपको याद ही होगा। चुनावी मौसम में नेताओं के घोषणा पत्र और वादों की बाढ़ आ जाती है। इस बार तो घोषणा पत्र के साथ वचन पत्र भी देखे। बहरहाल, विधानसभाएं जीती जा चुकीं अब बारी है लोकसभा के चुनावी मौसम का।
दरअसल, राजनीति के हर मोड़ पर ट्विस्ट ही ट्विस्ट हैं। मैं बचपन से ही 'घोषणाओं और वादों' के बारे में सुनता आ रहा हूं, कितनी घोषणाएं सही हुईं और कितने वादे पूरे हुए पता नहीं। इतना समझ में आता है कि 'घोषणा' और वादे इसलिए किए जाते हैं क्योंकि उसे पूरा करने का झंझट ही नहीं रहता। नेताओं के वादे वायरल फीवर की तरह हैं। एक को लगा तो दूसरे को भी आने लगता है। हर तीसरा नेता, चौथी सभा में कोई न कोई नया वादा कर ही देता है। भले ही पिछले वाले पूरे होने में पुरखे खप गए हों।
इधर इन दिनों वादे पूरे करने का मौसम चल रहा है। किसी भी कीमत पर और कैसे भी। बस जो वोट हासिल करने के लिए जनता के बीच उगला है, उसे पूरा करना है। तो कह रहा था कि इस समय किसानों की कर्जमाफी के वादों का मौसम चल रहा है। इधर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसानों के कर्ज माफी ने किसी को सत्ता दिला दी तो कोई दोगुनी किसानों की आय के वादे पर अभी भी सत्ता सुख भोग रहा है।
अरे साहब! किसान कर्ज माफी का दौर जब चल ही रहा है तो हमरे बउवा का भी कुछ ध्यान रखो। छोटा-मोटा कर्जा लिए है हमरा भी बउवा, माफ करवा देते तो खुश हुई जात थोड़ा। चलो कोई नहीं पर एक बात कही किसानों की आत्महत्या के आंकड़े आज भी हमरे बउवा का डरवा देत हैं कभी-कभी।
दरअसल, बउवा न अखबार मा पढ़ लिहिस 'एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़े किए जारी, 2015 में 8 हजार से ज्यादा किसानों और 4995 खेती-किसानी में लगे मजदूरों ने आत्महत्या कर ली है। साथ में यह भी पढ़िस की ई तो 2015 के हैं, 2016, 2017 और 2018 के एनसीआरबी जारी ही नहीं करिस है अभी तक।
सुनो! किसान कभी न खत्म होने वाला इंतजार कर रहे हैं। साल दर साल अच्छी फसल के रिकॉर्ड टूटे हैं, लेकिन हर साल किसान परिवार के हालात बद से बदतर ही हुए हैं। सड़कों पर ऐसे ही थोड़े आ जाते हैं लाठी खाने को। आर्थिक सर्वेक्षण 2016 के मुताबिक, आजादी के 70 बरसों के बाद भी देश के 17 राज्यों यानी की लगभग आधे देश में एक कृषक परिवार की औसत सालाना आय महज 20,000 रुपये है।
अरे ये तो सिर्फ किसानों की बात है। आगे और समझो। कहानी वादों के आगे निकल चुकी है। कागजों में का हुआ कुछ पता नहीं। हमरे बउवा का हुआ कि नहीं यू भी पता नहीं। लेकिन कहा जाता है न कि हम कउनो अपने घर से थोड़ा लाके कर देबे। जो होई वही से तो करब यानी छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के राजकोष लपालप भरे राहें जो किसान का मिल गवा। समझ गए हो न जो हम कह रहे हन।
अब बस थोड़ा और समझ लेओ इ जो वादे वाला गणित है न वो दरअसल थोड़ा कन्फ्यू किए है हमरे बउवा का। आरबीआई का डाटा कहत है कि वर्ष 2012 में खेती क्षेत्र में फंसे कर्जे का स्तर 24,800 करोड़ रुपये का था जो 2017 में बढ़ कर 60,200 करोड़ रुपये का एनपीए हो गया।
हमरा बउवा एक प्रमुख अर्थशास्त्री जोशी की बात पढ़िस 'इस बात से कोई इनकार नहीं है कि किसानों को अतिरिक्त मदद चाहिए क्योंकि उनकी आय नहीं बढ़ पा रही है लेकिन कृषि कर्ज माफी उसका उपाय नही है।' अब वह सोच में पड़ गया है।
बउवा कह रहा है रहन दो अब बस करो हमका कुछ नहीं समझना न करो हमरी कर्जमाफी और न करो कुछ। राजकोषीय घाटा और देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पता नहीं का-का होत है और इ सब का-का करत हैं। लेकिन जानकारों की मानें तो चुनावी वादों और पार्टी हित की बिसात पर नेताओं ने देश को और पीछे ही धकेला है। आंकड़ें बता रहे हैं कि फिलहाल की गई कर्जमाफी से बैंकिंग सेक्टर और राजकोषीय घाटे पर आने वाले समय पर काफी असर पड़ने वाला है।