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दिल्ली पर शरद जोशी का जबरदस्त व्यंग्य: हर फूल दिल्लीमुखी

Updated Thu, 30 Nov 2017 09:45 PM IST
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Sharad Joshi
Sharad Joshi
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विस्तार

दिल्ली में आज भी यहां के स्थानीय निवासियों से ज्यादा दूसरे राज्यों से आए लोग हैं।  किस तरह लोग दिल्ली पहुंचते हैं और उन्हें यहां क्या मिलता है, इस दिल की बात पर व्यंग्यकार शरद जोशी ने दिल से लेख लिखा है।  यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है।जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा हुआ था। 

जब तानसेन और बीरबल राजधानी आये या गालिब ने घूम-फिरकर अन्तत: यह निश्चय किया कि दिल्ली के कूचों में मरेंगे, तब वे नहीं जानते थे कि वे जाने-अनजाने इस देश के महत्वकांक्षी बुद्धिजीवी और कलाकारों की नियति निश्चित कर रहे हैं। तब से देश का हर प्रतिभाशाली लेखक, कवि, नेता, सम्पादक, पत्रकार, बातूनी, आलोचक, कलाकार, चित्रकार, बँगालघुसू चमचा एक अदद सपना राजधानी जाने, रहने और छा जाने का लिये घूमने लगा। उसके अन्दर-ही-अन्दर आकांक्षाओं की एक कुतुब बनने लगी ऊपर चढ़ने के लिए। उसका मक्का, तीरथ, परम लक्ष्य, आखिरी मंजिल, चरम छोर बन गया दिल्ली, प्रजातन्त्र का बड़ा चबूतरा, शेष मुकाम एक दूसरे की टांग खींचने का, कल्पवृक्षों का गार्डन, जहां पद, पुरस्कार, चुनाव के टिकट पेड़ों पर लटकते हैं। जहां संस्थाओं के ढाबे खुले हैं, तिकड़मबाजों के लिए, जो स्थायी छतरी है उन लोटन कबूतरों की, जो उड़ते रहना चाहते हैं, हर अदा और अन्दाज में देश के राजनीतिक, सासंकृतिक आसमान पर। दिल्ली घुस गयी सबके मन, दिमाग, आत्मा में, पर्याय लगने लगी पूरी देश की। धीरे-धीरे कमबख्त अपने शहर, कस्बे या गांव  में रहकर एक अदद दिल्ली अपनी पीठ पर ढोता घूमने लगा। कहीं भी रहे, उसकी आत्मा दिल्ली रहती है, उसके सपनों का लॉकर हो गया दिल्ली।

सभी सन्त यह साफ-साफ कहने के लिए कि उन्हें सीकरी से काम नहीं है, दिल्ली ही आने लगे और वहां प्रेस कांन्फ्रेंस आयोजित कर यह बताने लगे कि उन्हें कोई गरज नहीं है और वे बिना दिल्ली के काम चला सकते हैं, दिल्ली के विरोधी अन्तत: पसरकर बैठ गये दिल्ली की ही कुर्सियों पर।

दिल्ली के नाम पर एक दरवाजा हर शहर में बना और हर स्थानीय स्वपन्जीवी उस दिल्ली-दरवाजे से गुजरता हुआ मंजिल पर पहुंचने की सोचने लगा। सारी रेलों का आखिरी स्टेशन बन गया दिल्ली। गांव की पंचायतों में जो पौधे पनपे थे, वे बढ़ने के बाद सूखकर कटे दिल्ली में। मित्रों की कस्बई गोष्ठियों में जो नया स्वर पहली बार फूटा था, उसने अन्तिम सोलो परफॉर्मेन्स दिल्ली में दिया। जो अपने शहर में हूट होते थे वे जम गये दिल्ली में। सबकी किस्मत तय करने लगी है दिल्ली। हमारी जन्मपत्री के लग्न में बैठ गयी घुसकर अपने शनि, मंगल और रोहु-केतुओं के साथ। हाय रे दिल्ली ! पलना कहीं हो किसी का, पलंग दिल्ली में बिछता है। गम के बोध को भुनाने के चक्कर में फंसे अन्तत: पहुंच जाते हैं लोग निगमबोध घाट पर। अकेलेपन के मरीजों का वार्ड है कनॉटप्लेस, सब मानों को बेनामी करता और बेमानी में अर्थ खोजता गोल-गोल।

दिल्ली एक कॉम्पलेक्स हैं, एक ग्रन्थि है, दिल्ली एक सिल्ली है सीने पर रखी हुई। दिल्ली-भुस का लड्डू, जिसे न आप खा सकते हैं और न छोड़ सकते हैं। आप में उलझी हुई। आपसे अकारण फंसी, कम्बल की तरह आपको छोड़ने से इनकार करती हुई आपसे लिपटी हुई दिल्ली। एक झिल्ली हर शख्स के इरादों पर लिपटी हुई। अरमान उगलने के लिए एक स्थायी वाश बेसिन। एक तिल्ली पूरे शरीर की अपेक्षा अधिक बढ़ी हुई। आत्मा पर शरीर, शरीर पर खद्दर, खद्दर पर ओढ़ी दिल्ली। भाव को शब्द, शब्दों की पुस्तक, पुस्तकों का समर्पण दिल्ली। आक्रोशों की छुरी से खुश-खुश काटी जाती एक केक की तरह सजी संवरी दिल्ली। विद्रोहियों को मनसबदार बनाती, क्रांतियों को पुरस्कृत कर शाल पहनानेवाली, लाशों के तमगे बांटती, समझौतों का स्टॉक एक्सचेंज, जनभावना के दलालों का विराट् सराफा है दिल्ली। देश का काउंटर जहां लोग अपने आवेश जमाकर सुविधाएं ड्रा करते हैं। आवेग जमाकर वजीफे हासिल करते हैं। दिल्ली जहां देश के हर कस्बे के चालू ईसामसीह अपने सलीब बेचकर दो रोटी पाने के लिए क्यू में खड़े हुए हैं।

दिल्ली आखिरी कसौटी है, खटोला वहीं बिछेगा, इसलिए चले जाते हैं भूखे प्रान्तों के सूखे मुख्यमंत्री अपने टटपुंजिया हवाई जहाजों में हिचकोले खाते, रोज दिल्ली की दिशा में। चल जाता है मौलिक चिन्तन की गठरी बगल में दाबे रेल के डिब्बे में ऊंघता साहित्यकार दिल्ली की तरफ। दौड़ा जाता है चित्रकार अपना अधूरा कैनवास बगल में दाबे दिल्ली की तरफ, अपनी उम्मीदों की तस्वीर पूरी करने के चक्कर में परेशान। अटके रहते हैं नाटककार उस पागल आकांक्षी भीड़ में मुट्ठी भर शुद्ध दर्शक तलाशते। दिल्ली मर्तबान है कांच का, जिसमें प्रतिभाएं फर्मेंट होकर एक अलग मजा और स्वाद देने लगती है। दिल्ली घाट है जहां लोग नियति के धोबी के पीछे खुश-खुश दुम हिलाते पहुंचते हैं। उफान ठण्डे होते हैं, भभके बूंदी के निथर जाते हैं। दिल्ली यशास्थिति का गौरीशंकर है, जिस पर चढ़ने की कोशिश में हर पर्वतारोही जीवन भर जूते के तसमे बांधे नीचे फिसलता रहता है। जहां त्यागी अपने लिए प्रमाणपत्र तलाशते हैं और रसीले अपने प्रायवेट निर्झर। दोनों का केन्द्र वही है। देश में कहीं भी तार बजाना हो, खूंटियां कसने की जगह दिल्ली है।

पिछले सालों में दिल्ली एक वजन की तरह हमसे बंध गयी है। अपने पिंजरे में हर तोता दिल्ली की हरी मिर्च खाने के सपने देखता है। । कर्म और त्याग के आनन्द भवन छोड़ जो लोग ऐश और आकांक्षाओं के विलिंग्ड क्रिसेण्ट गये, वे जय-पराजय मान-अपमान, आशा निराशा की हर स्थिति में दिल्ली से चिपके रहे। यह भय उन्हें सताता रहा कि रिटायरमेण्ट के दूरस्थ सदाकत आश्रमों में उन्हें कोई नहीं पूछेगा। कुर्सी को अन्तिम बिस्तर बनाने की तोड़-जोड़ में लगे वे मेडिकल इन्सटीट्यूट में अपने थके फेफड़ों को जंचवाते वहीं बने रहे। हर शहर, हर गांव ने अपना श्रेष्ठ व्यक्ति, दिल्ली के प्यासे अप्रियकुण्ड को होम दिया और वह भी मेरा यार कूद गया अपनी जड़, अपनी जमीन को भूलकर।

जो लोग ढोते हैं, अपना-अपना कस्बा दिल्ली में, वे खतरनाक नहीं । वे तो असहाय हैं, करुणा के पात्र। खतरनाक हैं वे, जो सिर पर उठाये फिरते हैं एक दिल्ली हमेशा अपने छोटे से शहर या कस्बे में। दिल्ली उन्हें फ्रॉड बनाती है और वे शहर के लोगों में हीनता बांटते हैं। दिल्ली उन्हें भ्रष्ट करती है, वे स्थानीय कृपाएं बिखेरते हैं। दिल्ली उन्हें शब्द देती है, छोटे शहर में वे चीखते हैं। एक मुन्नी सी दिल्ली टहलती रहती है हर छोटे से शहर के सीने पर। वहां के साहित्य, संस्कृति, राजनीति सब पर फन फैलाये फुंफकारता है दिल्लीधर्मी तिकड़मी मानस, सबको रौब देता। दिल्ली दर्पण नहीं, मात्र एक दर्प है। उखड़े लोगों का नशा है। दिल्ली हमारी तुम्हारी नहीं, उनकी है।

इस देश का हर फूल सूरजमुखी नहीं होता। वह दिल्ली मुखी होता है। उसे सूरज से क्या मतलब? वह पूरे वक्त निरन्तर दिल्ली की तरफ टापता हुआ धीरे-धीरे मुरझा जाता है। तानसेन, बीरबल या गालिब ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन इस देश के हर राग की हर तान दिल्ली पर टूटेगी, हर सूझ दिल्ली से घिघियाती इनाम मांगेगी और हर गजल अपने अन्तिम शेर में कहेगी, हाय दिल्ली, हाय दिल्ली।


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