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अगर आप भारत में इस किस्म की आजादी की बात सोच रहे हैं तो आप मुगालते में हैं। इस किस्म की आजादी चाहिए तो किसी और देश में जाकर बस जाइए।
भारत के संविधान में साफ लिखा है कि कोई भी भारतीय बेहिचक देश के किसी भी हिस्से में रह सकता है, घर बना सकता है लेकिन ये आजादी मुंबई में खत्म सी लगती है। महाराष्ट्र में पिछले कुछ सालों में यूपी औऱ बिहार के लोगों के साथ गलत व्यवहार से साबित हो गया है कि यहां रहना खतरे से खाली नहीं। दूसरी तरफ दिल्ली में भी दूसरे राज्यों से आए लोगों के साथ तंज भरा व्यवहार साबित करता है कि संविधान की ये व्याख्या अपना अर्थ खो चुकी है।
किसी भी व्यक्ति को जीवनसाथी चुनने का अधिकार भारतीय संविधान के तहत प्रदत्त किया गया है लेकिन भारत में व्यवहारिक तौर पर ऐसी आजादी देखने को नहीं मिलती। मनमुताबिक शादी करने पर प्रेमी जोड़ों को ऑनर किलिंग के नाम पर मार डाला जाता है। दूसरे धर्म में शादी करने पर सामाजिक व्यवस्थाओं का हवाला देकर उनका जीना हराम कर दिया जाता है।हरियाणा की खाप पंचायतों का ही उदाहरण देख लीजिए, गैर जात और धर्म में शादी करने पर कितना खून और खराबा होता है कि लड़की घर से बाहर पैर निकालना पसंद नहीं करतीं।
बोलना तो हर देश में जायज है। लेकिन भारत में बोलने औऱ पूछने तक की आजादी के लाले हैं। ऐसे में जब सूचना का अधिकार लागू हो चुका है, एक सूचना मांगने पर पुणे के सतीश शेट्टी की हत्या साबित करती है कि अधिकार केवल कागजों में हैं। मंजूनाथ और सत्येंद्र दुबे हत्याकांड भूल गए तो एक बार फिर याद कर लीजिए। गलत काम के खिलाफ मुंह खोलने पर लोगों को मार डाला जाता है तो कौन आजादी से अपनी जुबान खोल पाएगा।
भारतीय अदालतों पर गौर करें तो देखेंगे कि हर साल एक लाख से ज्यादा पेंडिग मुकदमों का बोझ न्यायपालिका पर चढ़ता जा रहा है। अदालतें कितना न्याय कर पा रही हैं और बेकसूर को कितना न्याय मिल पा रहा है, ये गौर करने की बात है।
अकेले दिल्ली की जेल में सत्तर हजार से ज्यादा विचाराधीन कैदी जेल में बंद हैं जिनका पिछले तीन साल में ट्रायल तक शुरू नहीं हो पाया है। देश के अधिकतर राज्यों में यही हाल है तो एक आम आदमी न्याय की आजादी कैसे महसूस करेगा।