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मैं मरने से पहले एक बार सिगरेट पीना चाहता हूं...इजाजत लेकर

Apoorva Pandey/ firkee.in Updated Wed, 31 May 2017 04:54 PM IST
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cigarette - फोटो : natural news
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रोहित मिश्रा 


ये 2004 में जाड़े के दिन हुआ करते थे। कानपुर शहर में एक हीर पैलेस था। माल रोड में। सभी हॉल बंद हो गए वह अब भी चल रहा है। हीर के सामने क्लायड हाउस नाम की बिल्डिंग होती थी। बिल्डिंग से लगा हुआ मोटर साइकिल स्टैंड। 

मॉल रोड में एक एयर होस्टेस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट था। उसमें हर दो दो घंटे बाद बैच शुरू होते और छूटते। कुल मिलाकर माल रोड, माल रोड थी। मजमा लगाने वाली जगह।  साढ़े तीन बजे जब सपना और हीर पैलेस में फिल्में छूटती थीं तो पूरा माल रोड गुलजार हो जाता था। 

माहौल था, मौसम था तो मजमा लगाने वाले लोग भी थे। और ये मजमा लगता डबल स्टैंड में खड़ी उन मोटरसाइकिलों के पास। कुछ उनमें बैठे होते तो कुछ खड़े होते। ग्रुप में खड़े होकर पूरी फुरसत और बिना किसी डर के मैंने यहीं लोगों को सिगरेट पीते देखा। ये सभी बेहतर सेंस ऑफ हयूमर वाले बेरोजगार लड़के थे। मेरे पास भी समय था। लड़कों के उस झुंड में मैं भी एक पैसिव भागीदारी करने लगा। 

मेरा सिगरेट से कोई वास्ता नहीं रहा था। तो उनके ब्रांड भी मैं ज्यादा नहीं जानता था। मैंने बचपन से कैप्सटन और पनामा नाम की दो सिगरेट कंपनी देखी थीं। कैप्सटन को मैं कैप्टन बोला करता। बाद में एक विल्स नाम की कंपनी की सिगरेट भी आई। जो बाद में पता चला कि महंगी होती थी। 

हर तरह की बुराई कभी न कभी आपको अपने पास बुलाती है। उसके बुरे होने में ही उसका आकर्षण है। स्टैंड में लगीं मोटर साइकिलों पर बैठे ये युवा ऊंगलियों के बीच सिगरेट फंसाए होते। सिगरेट मुंह से खींचते तो सिगरेट का बाहरी हिस्सा हल्का लाल हो जाता। कोहरे भरी उन शामों में लाल रंग की चिंगारी मुझे बेहद खूबसूरत लगती। कश खींचने के बाद सिगरेट के आगे कुछ राख सी जम जाती। 

हाथ नीचे लटका रहे तो कई बार राख गिर जाती लेकिन कई बार उसे गिराना पड़ता। हर लड़का अलग-अलग तरीके से राख गिराता। लेकिन दो लड़के ऐसे थे जो चुटकी बचाकर सिगरेट की जमी राख झाड़ते। उनको राख झाड़ना होता और मैं मदहोश होता रहता। 

चुटकी बजाकर सिगरेट की राख गिराना मेरे लिए अब तक देखे सबसे अच्छे दृश्यों में एक लगता। कभी कभी मन करता कि मैं उनसे कहूं कि सिगरेट आप पीजीए मैं इसकी राख मैं गिराऊंगा। लेकिन भला ये कोई कहने वाली बात थी। 

एक बार मन में आया कि माल रोड से घर लौटते वक्त एक सिगरेट लूं और उसे पीयूं न सिर्फ उसकी राख झाडू। ये सोचकर कि कोई सिगरेट लिए देखेगा तो समझेगा मैं पी रहा हूं राख थोड़ी छोड़ रहा हूं। बस इसी ख्यााल से दुकान के सामने ठिठककर आगे बढ़ गया। 

सिगरेट के प्रति यह सम्मोहन चलता रहा। कई ऐसी शामें आईं जब मुझे लगा कि मैं कभी भी सिगरेट शुरू कर सकता हूं। मैंने सिगरेट शुरू नहीं की थी लेकिन सस्ते अखबारों में सिगरेट छुड़ाने वाले विज्ञापन पढ़ने शुरू कर दिए थे। 

जाड़ा बीता। गर्मी आई। माल रोड में उन ठेलों में खीरा-ककड़ी बिकने लगी जिनमें अभी तक मूंगफली और गुड़ की पट्टी बिकती थी। धीमे-धीमे करके वह मजमे खत्म हो गए। मेरा भी माल रोड जाना बंद हो गया। पता नहीं कैसे ये ख्याल भी मन से निकलने लगा कि सिगरेट शुरू करनी है। 

फिर शहर बदला। लोग बदले। ऐसे साथी हुए जो चेन स्मोकर हुए। लेकिन सिगरेट शुरू करने की वैसी तलब फिर न हुई। पर आज भी सिगरेट की लाल चिंगारी मुझे अपनी तरफ खींचती है। चुटकी से राख गिराना आज भी सबसे अच्छे दृश्यों में से एक है। मैंने सोच रखा है कि एक न एक दिन मैं एक सिगरेट जरूर पियूंगा। न पी सका तो सिगरेट खरीद के उसकी राख जरूर झाडूगां...

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