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सुबह से पूरे देश में हंगामा हुआ पड़ा है कि दिल्ली में स्मॉग हो गया… दिल्ली मर रही है… गैस की चैंबर बन गई है… बचाओ दिल्ली को.... ब्लाह, ब्लाह, ब्लाह, ब्लाह। हम सब स्मॉग पर चिंतित कम आनंदित ज्यादा दिख रहे हैं। सब ऐसे बिहेव कर रहे हैं जैसे इस स्मॉग से किसी का कोई लेना-देना ही नहीं है, ये अचानक से उस समुद्र मंथन से निकल आया है, जिसे हम अमृत के लिए मथ रहे थे। एक्चुअली ये तो हर साल होता है बस महीने बदल जाते हैं और हर बिरादरी, विरोधी बिरादरी के सिर पर इस स्मॉग का बिल फाड़ कर अपनी तरफ से फुरसत में हो जाती है। जनता… सरकार पर… सरकार सिस्टम पर… सिस्टम फिर जनता पर। आरोप प्रत्यारोप के इस गोल चक्कर में सब भाग रहे हैं, सबको मजा भी आ रहा है लेकिन कोई इसके वास्तविक समाधान पर बात करने को तैयार नहीं!
डॉ, इंजीनियर क्लास के लोग एसी चैंबरों और एसी कमरों में बैठकर इसकी चर्चा कर रहे हैं तो गरीब क्लास वाले… भट्टी के बगल में बैठकर बीड़ी सुलगाते हुए कह रहे हैं… का यार, अब्बे से धुंध गिरे लगल… इ कुल सरकारी लोग ध्याने न देत हुवन।
दरअसल स्मॉग लल्ला को पैदा करने में हम सब का योगदान है। हमारी छिछालेदरी एक्सपर्ट्स ने इस स्मॉग का बेहद बारिकी से अध्य्यन किया और इन 5 कारणों को कॉलर से घसीट के सबके सामने ला दिया। आंखें मल कर पढ़ें… और पढ़ने के बाद आंखेें खोलें भी।
स्मॉग क्या… हमारी आधी से ज्यादा समस्या इसी कारण से उपजी है और दिल्ली तो इसी आग पर रोज तपता है, जरा सा धुंआ क्या दिख गया, हंगामा होने लगा। अब धुंआ निकल आया तो नेता लोग धुंए को निपटाने के बजाय एक दूसरे पर लेथन पोत रहे हैं। और हां… ये धुआं हीं नहीं, बहुत कुछ सुलग रहा है, उस पर भी ध्यान दें।
दिल्ली को मेट्रो सिटी कहा जाता है, मतलब यहां शहरीपना जरूरत से ज्यादा है। दूसरे शहरों के मुकाबले मेट्रो शहरों में पढ़े लिखें गंवारों की संख्या ज्यादा हुआ करती है। पढ़े लिखे गंवार उस जाति के प्राणी होते हैं जिन्हें पता सब होता है लेकिन करते कुछ नहीं। अंग्रेजी अखबारों में पॉल्यूशन का लेवल पढ़कर चिंतामई मुंह बना लेंगे लेकिन कार की चाभी छोड़कर बस या मेट्रो का सहारा नहीं लेंगे। गरीब के चूल्हे को देखकर चू-चू कर लेंगे लेकिन रोज बार्बीक्यू रेस्ट्रोरेंट में जाकर पनीर और चिकन की टांगे तोड़ेंगे।
आप कितनी भी कोशिश कर लें, ऑफिस एक ऐसी जगह है… जहां पहुंचने के लिए हमेशा इंसान लेट ही होता रहता है। और अगर आपके पास कार है तो घर से निकलते वक्त देर होने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में कार लेकर निकलना मजबूरी हो जाती है। एक आध लोग की इस तरह की मजबूरी को समझा जा सकता है लेकिन हजारों लोग घर से गाड़ी इसी मजबूरी में निकालते हैं तो बात गंभीर हो जाती है।
दिल्ली न सिर्फ देश की राजधानी है बल्कि तमाम तरह के सेक्टरों की भी राजधानी बनी बैठी है। यहां रोजाना.... सैकड़ों इवेंट्स होते हैं, जहां जगमग रौशनियों के साथ जमकर दिखावा किया जाता है। इस तरह के दिखावे वाले प्रोग्रामों से भी प्रकृति को एलर्जी होती है। सबसे मजेदार बात ये है कि ऐसे इवेंट्स कराके प्रकृति के लिए चिंता जताई जाती है।
वैसे तो हम भी मीडिया के पार्ट हैं लेकिन हम अपनी जिम्मेदारी समझते हैं और गलत को गलत कहने के लिए खबरों की इस दुनिया में पहचाने भी जाते हैं। लेकिन ऐसा देखने में आया कि मीडिया को जब पर्यावरण के लिए लोगों को जागरुक करना चाहिए तब हम डराने वाले काम कर रहे होते हैं। अब अखबारों और समाचारों से सरकारों को तो डर लग सकता है लेकिन आम आदमी सिर्फ जानकारी के लिए ही इनका इस्तेमाल करता है। जिस तक ‘दिल्ली मर रही है’ जैसी खबरों के बजाय, ‘इन तरीकों से दिल्ली को मरने से बचाया जा सकता है’ वाले मोड में नहीं आएंगे तब तक सब ऐसे ही चलता रहेगा।
वैसे हमारी एक समस्या है, हम एडजस्ट करने में माहिर होते हैं। इसलिए आज हमे ये धुंआ बेवजह लग रहा है… सांस लेने में परेशानी हो रही है। लेकिन अगर कुछ दिनों में समाधान नहीं ढूंढा गया तो इस बात के लिए तैयार रहें, कि इसी धुएं में हम खुद को एडजस्ट कर लेंगे।