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स्कूल और डांस बार… दो अलग-अलग इमारतें, जिनके रंग-रुप-रोगन से लेकर आकार-विचार और प्रकार तक में जमीन और आसमान जितना अंतर होता है। सूरज उगने के साथ स्कूलों में बच्चों को सभ्य समाज की परिभाषाएं लिखा-लिखा के रटवाई जाती हैं। और सूरज के डूूबते ही इन्ही रटी-रटाई परिभाषाओं का चीरहरण 'डांस-बार' में किया जाता है। कैसा लगेगा जब एक बिल्डिंग 'दिन' में 'स्कूल' और 'रात' में 'डांस-बार' के तौर पर इस्तेमाल की जा रही है, तो…
थोड़े बहुत लोगों को जरूर गुस्सा आ रहा होगा लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होंगे जो कल्पनाओं के सोफे पर पसर कर आहें भरने लगे होंगे । जो बच्चे ऐसे स्कूलों में पढ़ते होंगे जरा उनके बारे में सोचिए… अगली सुबह जब वो नए ज्ञान की उम्मीद के साथ स्कूल में अपना पहला कदम रखते होंगे तो शिक्षा के मंदिर में उनका स्वागत ताजगी की खूशबू के साथ नहीं बल्कि शराब की बदबू से हुआ होगा। रात की खुमारी बच्चों की बेंचों पर मुंह बाए उन्हे चिढ़ा रही होगी।