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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को लेकर देश में चर्चाएं गर्म हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने गांधी जी को लेकर एक बयान दिया, जिसे विवादित माना जा रहा है। कांग्रेस अमित शाह के बयान की घोर निंदा कर रही है और उनसे माफी मांगने के लिए कह रही है। दरअसल शुक्रवार को छत्तीसगढ़ में शाह ने कांग्रेस की आलोचना करते हुए महात्मा गांधी को 'चतुर बनिया' कह दिया था। इसमें कोई शक नहीं कि मोहन दास करमचंद गांधी किसी और जाति से संबंध रखते थे, उनका जन्म एक बनिया यानी वैश्य परिवार में ही हुआ था, लेकिन यह भी सच है कि एक वक्त ऐसा भी आया था जब उन्हें बिरादरी से निकाल दिया गया था। यह बात गांधी जी ने खुद अपनी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' में लिखी है।
गांधी जी की बात चल ही रही है तो आपको उस पूरे बेहद दिलचस्प किस्से से रूबरू कराते हैं। गांधी जी की आत्मकथा के अनुसार जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली तब उनकी आगे की पढ़ाई को लेकर वह और उनके घरवाले उहापोह की स्थिति में थे। एक दिन उनके पिता के मित्र भावजी दवे, जो कि गांधी परिवार के सलाहकार समान थे, वह घर आए और गांधी जी की पढ़ाई-लिखाई की बात पूछी। उन्हें जब पता चला कि गांधी जी मैट्रिक पास हो चुके हैं तो उन्होंने कुटुंब की भलाई के लिए गांधी जी के बड़े भाई और माता जी को सलाह दी कि उन्हें वकालत की पढ़ाई के लिए विलायत भेजा जाए।
भावजी दवे को गांधी जी और उनके परिवार के लोग जोशी जी कहते थे। जोशी जी का लड़का केवलराम भी विलायत में पढ़ाई कर चुका था इसलिए उन्हें विलायत में पढ़ाई करने पर आत्मविश्वास था और इसीलिए उन्होंने गांधी जी के लिए विलायत की पढ़ाई के लिए सुझाव दिया था। भावजी दवे ने कहा कि विलायत से तीन साल की पढ़ाई करके गांधी जी ठाठ से रहने वाले बारिस्टर बन जाएंगे और इसमें खर्चा चार-पांच हजार रुपये का आएगा।
जोशी जी ने तब 18 साल के गांधी जी से पूछा कि उन्हें विलायत जाने में कैसा लगेगा तो गांधी जी ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि कॉलेज की पढ़ाई में वह जल्दी-जल्दी पास हो सकेंगे, इसलिए विलायत भेजना अच्छा होगा। लेकिन उसी वक्त गांधी जी ने अपनी रुचि जाहिर की और पूछा कि क्या उन्हें डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए विलायत नहीं भेजा जा सकता?
उनके बड़े भाई ने कहा कि पिता जी को यह पसंद नहीं था कि हम वैष्णव होकर चीर-फाड़ का काम करें। पिता जी तुम्हें वकील ही बनाना चाहते थे। उस वक्त गांधी जी की माता जी को कुछ सूझा नहीं और उन्होंने कहा कि जो भी करो, चाचा जी की सलाह लेकर करना। परिवार में बड़े बुजुर्गों में चाचा जी ही बचे थे।
गांधी जी विलायत जाने की बात से मन ही मन रोमांचित और खुश थे, लेकिन पैसों की अड़चन भी थी और चाचा जी और माता जी की आज्ञा भी जरूरी थी। बड़े भाई को सूझा कि पोरबंदर स्टेट के एडमिनिस्ट्रेटर लेली साहब पढ़ाई के लिए पैसों की मदद कर देंगे, लेकिन उन्होंने नहीं की और गांधी जी को पहले बी.ए. पास करने की सलाह दी।
चाचा जी ने पहले विलायत से पढ़कर लौटे लोगों के अवगुणों की चर्चा की फिर कहा कि वह गांधी जी की चाह में बाधक बनना भी पसंद नहीं करेंगे। चाचा जी से गांधी जी को लेली साहब के लिए सिफारिशी पत्र लिखवाना था जो उन्होंने नहीं लिखा था। चाचा जी अंत में बोले कि मां की इजाजत हो तो ही विलायत जाना। पैसों की समस्या का समाधान नहीं निकला तो गांधी जी को अपनी पत्नी कस्तूर बाई के गहने याद आए।
उन्होंने परिवार के सलाहकार जोशी जी से फिर मुलाकात की। जोशी जी ने कहा कि कर्ज लेकर भी विलायत जाना पड़े तो जाना चाहिए। कस्तूर बाई के गहनों की कीमत गांधी जी ने 2-3 हजार रुपये आंकी। लेकिन बड़े भाई ने बाकी रुपयों का इंतजान करने का वीणा उठाया। अब माता जी को मनाना था। माता जी ने कहा कि विलायत जाकर लोग बिगड़ जाते हैं, इस पर परिवार के एक और सलाहकार बेचरजी स्वामी से सलाह ली गई। बेचरजी स्वामी मोढ़ बनियों में से थे जो एक जैन साधू बन चुके थे। बेचरजी ने मां से कहा वह गांधी जी से मांस, मदिरा और स्त्री संग से दूर रहने की प्रतिज्ञा लिखवाएंगे और फिर उन्हें विलायत जाने देने में कोई हानि नहीं होगी।
गांधी जी पत्नी कस्तूर बाई की गोद में एक नन्हा बालक छोड़कर और माता जी आज्ञा लेकर बंबई के लिए निकल पड़े। बंबई में गांधी जी के भाई के मित्रों ने जून-जुलाई के महीने में समंदर में हादसे और तूफान का जिक्र किया और दीवाली के बाद यानी नवंबर में उन्हें भेजने की सलाह दी। अब बाकी का समय गांधी जी को बंबई में काटना था, जो उन्हें पहाड़ समान प्रतीत हुआ। गांधी जी को विलायत के सपने आते थे। लेकिन एक बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई। गांधी जी की जाति में उनके विलायत जाने को लेकर खलबली मच गई।
बिरादरी की सभा बुलाई गई और कहा गया कि अब तक कोई मोढ़ बनिया विलायत नहीं गया है। गांधी जी से पंचायत में जवाब-तलब किया गया। बिरादरी के सरपंच के साथ गांधी जी परिवार का दूर का रिश्ता भी था। सभा हुई और गांधी जी कहा गया कि हमारे धर्म में समंदर पार करना मना है क्योंकि विलायत में धर्म की रक्षा नहीं हो पाती है, साहब लोगों के साथ खाना-पीना पड़ता है। गांधी जी ने कहा कि जिन बातों पर आपत्ति होनी चाहिए उनके लिए वह पहले ही प्रण ले चुके हैं और वह केवल पढ़ाई के लिए विलायत जा रहे हैं, उन्होंने जोशी जी की सलाह का भी जिक्र किया। इस पर सरपंच ने कहा कि तो फिर तू जाति का हुक्म नहीं मानेगा?
गांधी जी ने कहा कि वह लाचार है और इस विषय पर जाति को दखल नहीं देना चाहिए। सरपंच जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने खरी-खोटी सुनाकर गांधी जी को जाति से बेदखल मानने का हुक्म दे दिया।
सरपंच जी ने यह भी आदेश दिया कि अगर कोई व्यक्ति गांधी जी मदद करता है और उन्हें बिदा करने जाएगा तो उसे पंचों का सामना करना पड़ेगा और सवा रुपये का दंड भी देना पड़ेगा।
गांधी जी के बड़े भाई को भी सरपंच के आदेशानुसार जाति से निकाले जाने की बात से कोई फर्क नहीं पड़ा और वह गांधी जी की मदद के लिए तत्पर रहे। जाति से निकाले जाने के बाद तमाम उतार-चढ़ाव के बीच 4 सितंबर 1888 को गांधी जी जूनागढ़ के वकील त्र्यंबकराय मजमूदार के साथ बंबई के बंदरगाह से विलायत के लिए जहाज से रवाना हो गए।
गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में अपने अवगुणों का वर्णन भी किया है, लेकिन समय के साथ उनमें सुधार लाना और सत्य-अहिंसा का पालन करना भी उन्होंने सीखा। उन्होंने किसी भी काम के लिए सलाह तब दी जब खुद उस पर अमल किया। उन्होंने दुनिया को सिखाया कि सत्य के आग्रह यानी सत्याग्रह से दुनिया की कोई भी जंग जीती जा सकती है। उन्होंने हमेशा यह बताया कि बिना झूठ बोले व्यापार और वकालत की जा सकती है। उन्होंने ऐसा करके दिखाया। गांधी जी जैसे-जैसे उम्रदराज होते गए उनका चरित्र संत की तरह होता गया, शायद इसीलिए उन्हें महात्मा कहा गया। उनकी शख्सियत के लिए 'चतुर बनिया' शब्द का इस्तेमाल शोभास्पद लगता है या नहीं, अब इसका फैसला आपको करना है।
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