विस्तार
“मैं यह सोच-सोचकर कोमा में हूं कि अगर सारे पाठक ऐसे ही लेखकों को धमकाने लगे, उन्हें सच का आईना दिखाने लगे तो हम लेखकों का क्या होगा?”
मुझे मोबाइल पर किसी ने धमकी दी है। धमकी दी है, तो अंजाम भी देगा। सोचा पुलिस को इत्तला कर दूं, क्योंकि ‘जान है तो जहान है।’ बिना समय गवाए पुलिस थाने पहुंच गया। थानेदार साहब से घबराते हुए बोला, ‘साहब! अब आप ही कुछ कीजिए। वरना जिंदगी की पिच पर बिना रन लिए ही आउट हो जाऊंगा।’ यह सुनकर थानेदार साहब ने कहा कि आखिरकार हुआ क्या है।
मैं बोला, ‘साहब! सुबह-सुबह भगवान का स्मरण कर रहा था। तभी मोबाइल थरथराया। कॉल रिसीव की, स्मरण मरण में बदल गया।’
‘अच्छा तो पहले यह बताओ कि तुम करते क्या हो?’
‘साहब! मैं तो एक अदना सा-लेखक हूं। यदा-कदा लिखता हूं। पत्र-पत्रिकाओं में लगभग रोज छपता हूं।’
‘यदा-कदा लिखते हो तो रोज कैसे छपते हो।’
‘साहब! वह क्या है कि सप्ताह में एक रचना लिखता हूं और वही किसी न किसी अखबार में रोज सप्ताह भर छपती रहती है।
‘जरूर तुम्हारी संपादकों से सांठगांठ होगी।’
‘नहीं साहब! सांठगांठ नहीं है। 'किसी लेख-वेख में उल्टा-सीधा तो कुछ नहीं लिखा न।’
‘साहब! लेख तो मैं लिखता ही नहीं हूं।’ थानेदार साहब झुंझलाते हुए बोले, ‘अबे तो तूने अभी कहा न, मैं लेखक हूं। लेखक लेख नहीं लिखता तो और क्या लिखता है? ‘साहब मैं तो ‘व्यंग्य’ लिखता हूं।’
‘तो किसी व्यंग्य में उल्टा-सीधा लिख दिया होगा।’
‘साहब! व्यंग्य सीधा-सीधा थोड़े ही लिखा जाता है। व्यंग्य तो उल्टा-सीधा ही लिखा जाता है।’
‘जरूर तूने सरकार के खिलाफ व्यंग्य कसा होगा।’
‘नहीं साहब!’ ‘तो किसी राजनेता के खिलाफ...या किसी भू-माफिया के खिलाफ... या किसी डॉन या चोर-उचक्के के खिलाफ...।’ ‘नहीं साहब!’
‘नहीं साहब! व्यंग्य तो विसंगतियों पर लिखा जाता है।’
‘तो तुझे अभी मैंने जो बताया, उनमें विसंगतियां नहीं दिखतीं?’
‘दिखतीं हैं न साहब!’ ‘तो लिखता क्यों नहीं?’ ‘लिखता हूं न साहब!’ खैर छोड़। यह बताओ धमकी देने वाले ने क्या कहा था?’
‘साहब! ठीक से याद नहीं, पर इतना जरूर याद है कि उसने यह कहा था कि अपने मन के मुताबिक मतकर वरना अंजाम बहुत बुरा होगा।’
थानेदार साहब ने अपने मुखबिर को सूचित किया। एक घंटे बाद मुखबिर ने धमकी देने वाले का नाम, पता बता दिया। थानेदार साहब ने उससे बात की और मुझसे कहा, ‘यह तुम्हारा प्रिय पाठक है। लो इससे बात करो।’
मैंने फोन लिया, ‘हैलो...लेखकजी मैंने धमकी नहीं हिदायत दी थी कि तुम जब भी लिखते हो अपना ही रोना रोते रहते हो। कभी हमारी भी सुन लिया करो। रोजी-रोटी, रोजगार, महामारी, महंगाई, भ्रष्टाचार की बात कर लिया करो। हमारे गांव में पानी नहीं, बिजली नहीं, सड़क नहीं। गरीबी, भुखमरी तथा बेरोजगारी से जनता त्रस्त और सरकार मस्त है। लेकिन तुम तो पुरस्कार के लिए लड़ते हो। कलम को संगीन बनाओ तो ही असर करती है।’ कहकर उसने फोन काट दिया।