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दिखावा एक बीमारी है। देश की ज्यादातर आबादी इस बीमारी से ग्रसित है। क्रेडिट कार्डों और क्विक लोन का कल्चर भी इसी से विकसित हुआ है। लेकिन ये एक पुरानी बीमारी है, जिसके बारे में बारीकी से लिखा व्यंग्य लेखक शरद जोशी ने। 1985 में ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित, ‘यथासम्भव’ में उनका लेख ‘एक अन्तहीन प्रदर्शनी’ इसी दिखावे पर एक जबरदस्त चोट है।
आदमी एक खास भाव प्रकट करने के लिए कोट पहन लेता है और सरकार ऐसे ही किसी मूड में प्रदर्शनी लगा देती है। यों भी आप प्रदर्शित होने से किसी को कैसे रोक सकते हैं! लहर उठती है प्रकट हो जाती है। कोई क्या करेगा तब? सरकार के सीने में प्रदर्शनाी लगाने का दर्द जब-तब उठता और उसी आंतरिक पीड़ा से वह ग्रस्त वह एक दिन किसी चौड़े मैदान में पसरकर बैठ जाती है। सम्पूर्ण जंका-मंका, ताम-झाम लटके, जैसे कोई पूरे नाजो-अन्दाज में ठुमरी सुनाए। एक संकोचशील सरकार के लिए समस्या हो जाती है। रोज बड़बोले भाषण देना। वह सोचती है, क्यों न एक प्रदर्शनी लगा दें। हाथ कंगन को आरसी क्या, जो भी होगा सामने आ जाएगा। उसके निश्चय के साथ मय राक्षसों के सरकारी वंशज कार्यरत हो जाते हैं और रंग और प्रकाश की एक मायानगरी खड़ी होने लगती है। जमीन समतल की जाती है, कनातें खड़ी की जाती हैं। भिश्ती छिड़काव करते हैं, फर्श, कालीन बिछता है, मालन गजरे लाती है औप पुरग्राम की वनिताएं अपने आधुनिक केड़ों-छड़ों में सज-धजकर चल पड़ती हैं।चौंधिया जाती हैं आंखें देखकर। हाय दय्या, हमारे देश में इत्ती सारी प्रगति कर डाली है, हमें तो पता ही नहीं था।
शरद जोशी जी ने शादी ब्याह में होेने वाले खर्चे को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं लेकिन अपने अंदाज में… और उसको प्रदर्शनी से जोड़ भी रहे हैं।
आदमी के पास जर कितना है, उसका प्रभाव कितना है, इसका सही पता भारत में तब चलता है, जब वह अपनी बेटी का ब्याह रचाता है। एक खास दिन बारात आने वाली होती है। एक खास क्षण में लग्न लगने वाली होती है। उस पूर्व निश्चित घड़ी के लिए सारी भागदौड़, सारी बदहवासी। मुहूर्त न चले, इज्जत रह जाए। जिस भाव जमे, जिस तरह जमे, जमाओ। यही स्थिति प्रदर्शनी लगाने वाले जीते हैं। शासन तारीख तय कर देता है कि फलां इस दिन प्रदर्शनी खुलेगी और सारे विभाग अपनी कछुआ गति से दौड़ने लगते है। फायनेंस से पैसा, विभाग से प्रस्ताव, मन्त्री से स्वीकृति, कलाकारों से डिजाइन, पानी, बिजली, टेण्डर, चिकचिक, विभागीय सवाल-जवाब, ठेकेदार से प्रकट व गुप्त समझौते और सबसे कठिन काम-विभाग ने प्रगति कितनी की है, इसका पता लगाना। यह सब सरल नहीं होता। विगत दशकों में विभागों की सबसे बड़ी प्रगति यह है कि उनके बजट बढ़े हैं, खर्च बढ़ा है, वेतन व विशेष भत्ते बढ़े हैं, नये पद बने हैं, भवन तने हैं। मगर जब राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शनी हो, तब जनता को यब सब तो बताया नहीं जाता। जनता जानती है। प्रदर्शनी में उसे नयी बात पता लगनी चाहिए।
जोशी जी ने एक ऐसी प्रदर्शनी लगाने की गुजारिश की है जो देश की असल स्थिति को प्रदर्शित करे। देखिए कैसी प्रदर्शनी की बात कर रहे हैं।
मन करता है, एक प्रदर्शनी ऐसी लगाए जाए जिसमें वह दर्शाया जाए जो आजतक नहीं दिखाया गया। बड़ा मैदान हो, ढेर सारे मण्डप हों। एक मण्डप उद्योग विभाग का, जिसमें बताया जाए कि मिलावट करने, नकल कर हूबहू बना बेचने में देश ने इधर कितनी प्रगति की है। कितने लोगों ने कितने लाइसेंस ले कितने कारखाने नहीं खोले और जो खोले उसमें कितनी हड़तालें हुईं, उत्पादन कितना कम हुआ। एक मण्डप जिसमें प्रदर्शित हो कि बाजार में मिलने वाली वस्तुओं का सही मूल्य क्या है और ग्राहक क्या देता है। कालाबाजारी पर एक मण्डप, भ्रष्टाचार पर एक मण्डप। लोगों को बताया जाए कि सरकारी दफ्तर में कौन-से काम कराने के लिए कि श्रेणी के बाबू या अफसर की दी जानेवाली रिश्वत की दरें क्या हैं? छिपा पैसा किन धन्धों में लगता है। सट्टा-जुआ क्षेत्र में राष्ट्र कितना आगे बढ़ा?....
शरद जोशी ने एक इस व्यंग्य में आखिर में उन्होंने बहुत ही जोरदार प्रहार किया, समझने वाला प्रस्तुत लाइनों की गहराई को जरूर समझेगा।
पता नहीं ऐसी प्रदर्शनी कब लगा सकूंगा मैं। कब देखेंगे लोग? कई बार ऐसा लगता है, देश में यह प्रदर्शनी स्थायी रुप से लगी हुई है और उससे गुजरनेवाला भारतवासी दर्शक-सा तटस्थ हो चुपचाप ताकता-झांकता चला जा रहा है।