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व्यंग्य लेखन की कला में पारंगत शरद जोशी ने एक बसस्टैण्ड के भिखारी पर चर्चा करते हुए देश पर ऐसा तंज मारा है कि आप भी सोच में पड़ जाएंगे। प्रस्तुत व्यंग्य उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है। जो भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सन् 1985 में प्रकाशित हुई थी।
कुछ भिखारी ऐसे होते हैं, जिनकी शक्ल देखकर दस पैसा देने की तबीयत नहीं करती। उन्हें देख लगता है कि ये भिखारी के अतिरिक्त कुछ हो सकते थे, पर हुए नहीं। न वे अपंग होते हैं, न रोगी। न दुबले, न दीनहीन। अनिवार्य कुचैला बाना धार वे अपने भिखारी होने की सूचना देते मांगते रहते हैं। वे आपके सामने हाथ फैलाते हैं। यह हाथ झापड़ का एवजी प्रतीत होता है। आप मुंह मोड़ लेते हैं, क्योंकि वह व्यक्ति भीख मांगनेवालों के करुण संसार का सदस्य नहीं लगता। बेशर्मी का एक स्थायी भाव उसके चेहरे पर रहता है। दारू पीने के लिए चन्दा मांगनेवालों की तरह।
एक ऐसे ही व्यक्ति को मैं अपने होटल की गैलरी से रोज देखता हूं। सामने बसस्टैण्ड है, जहां कुछ नियमित और अनियमित टूरिस्ट बसें मैंगलौर से पणजी जाते हुए ठहर जाती है। होटल के नीचे के भाग में वेजीटेरियन और नॉन वेजीटेरियन भोजन के दो हॉल हैं। सस्ते काजू के पैकेट्स, नारियल पानी और पान का बीड़ा बेचनेवालों की दुकानें हैं। वह भिखारी अलसुबह से देर रात तक वहीं मंडराता रहता है। सुबह उठ कुनकुनी धूप से अपनी अधखुली आंखों का सम्बंध जोड़ने जब मैं गैलरी में आता हूं, उसे भीख मांगते देख मेरे मन में एक किस्म की खिन्नता भर जाती है। जब से सारा दिन मुझे वह बस की खिड़कियों और बाहर घूमते यात्रियों के सामने हाथ फैलाये दिखाई पड़ता है। वहीं एक भिखारिन भी है, जिसके हाथ पर मैं जरूर कुछ चिल्लर रख देता हूं। उसके पैर घुटने से ऊपर कटे हुए हैं और एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए उसे विचित्र प्रकार से स्वयं को घसीटना पड़ता है। उसे घसीटना कहना शायद गलत होगा। वह कूल्हे के बल हलके-हलके उछलती हुई आगे बढ़ती है, तो अपने फैले हुए धूलिया पेटीकोट के कारण वह घिसटती सी लगती है।
मैं सोचता था कि वह किसी ऐसे एक पटिये पर क्यों नहीं बैठ जाती, जिसमें छोटे-छोटे पहिये लगे हों। यह हाथ के सहारे पटिये को आगे ठेल तेजी से आगे बढ़ सकती है। पर समस्या यह थी कि विकसित टेक्नालॉजी भीख मांगने की प्रक्रिया में कैसे सहायता पहुंचा सकती है, इस पर मैं उसे नहीं समझा सकता था। वह शायद मैंगलौरी झुकाव की कन्नड़ बोलने वाली होगी। मैंने उसे हमेशा चुप ही देखा, वह हाथ उठा भर देती, तो भाषा की तमाम आवश्यकता गैर जरूरी हो जाती। उसे भीख रह-रहकर मिल जाती। वह बसों के पास नहीं जाती। वह घिसटती-उछलती पहुंच भी जाय, तो बस में बैठे आदमी की नजर उस पर नहीं पड़ सकती थी। फिर एक दिन मैंने गौर किया कि पूरे बसस्टैण्ड का धरातल ऊबड़खाबड़ है और भीख मांगने के ऐसे कार्यक्षेत्र में विकसित टेकनालॉजी के चातुर्य का प्रदर्शन करने की कोई आवश्यकता नहीं। यों भी इस छोटी सी बात के लिए दक्षिण भारत की भिखारिन को बाहरी टेक्निकल जानकार की जरूरत नहीं।
वह भिखारी बड़ा मुस्तण्डा था। लगातार बीख मांगते-मांगते गरदन में झुकाव आने के अतिरिक्त उसके शरीर में कोई विकृति नहीं थी। जब भी बस आती, वह उछलता हुआ सा उसकी ओर बढ़ता और लगातार शक्लों का मुआयना कर भीख मांगता रहता। उस दिन पता नहीं कैसे, अखबार में भारत को प्रदत्त आर्थिक सहायता की खुशखबर शैली में लिखित समाचार को पढ़ते हुए मेरा ध्यान बस स्टैण्ड के उस भिखारी की ओर चला गया। वह उसी उत्साह और कर्तव्यनिष्ठा से एक नई आई बस के सामने भीख मांग रहा था, जिस उत्साह से आजादी के इतने वर्ष बीतने के बाद हमारा देश आर्थिक सहायता मांगा करता है। आर्थिक सहायता मांगने, लेने, उस सम्बन्ध में कोशिश करने, मंसूबे बांधने, तिकड़म जमाने की खबरें रोज ही पढ़ने को मिलती हैं। लगा रहता है भारत चौबीस घंटे किसी पराये देश की जेबें ढीली करवाने में। हमें दो। पहले दिया था, फिर थोड़ा और दो। ज्यादा दो, कम दो मगर दो। दान दो। दान न हो सके, तो कर्ज दो। बिन ब्याज का दो चाहे ब्याज का दो, पर हमें दो। दो इसलिए कि हम भारत है। भारत को दिया जाना चाहिए। अगर आप अमरिकी हैं तो दो, रुसी हैं तो दो, अरब के हैं तो दो, फ्रांस के हैं तो दो। आप जो भी हैं हमे दो। बस स्टैण्ड का भिखारी, बस किस दिशा में आ रही है, यह नहीं देखता है। उससे इसे मतलब भी नहीं। बस है, तो भीख उसका हक है, कर्म है, नीति है। वह मांगेगा।
और बसें हैं कि कमबख्त लगातार एक के बाद एक आती रहती हैं। भिखारी है कि उसे भीख मांगने से उसे फुरसत नहीं कि एक क्षण को सुस्ता तो ले। आजादी के फौरन बाद से लगातार मांग रहा है- बस स्टैण्ड का भिखारी-मेरा देश।
अचानक आ जाती है बस और लपक पड़ता है मुस्तण्डा। कुवैत का रईस कटोरे में डालकर लौटा भी नहीं कि फ्रांस का प्रधानमंत्री आ गया। उससे कुछ झटका कि तभी पता लगा कि गरीब देशों को सहायता बांटने की मीटिंग हो रही है अमेरिका में। लपके उधर कटोरा हाथ में लेकर, मार लाए जितना मिला। तभी खबर पड़ी कि वर्ल्ड बैंक को कुछ गिरह ढीली करना चाहता है। दौड़े उस तरफ कि विकास के नाम पर हमें भी कुछ मिल जाए। चैन नहीं भारतीय आत्मा को। बसस्टैण्ड का भिखारी हो गया है भारत, सब कुछ है, हो सकता है, मगर चैन नहीं। हमें भीख दो, क्योंकि हमें करोड़पति होना है। सोनी के रंगीन टीवी और मेकअप का विदेशी सामान खरीदना है। हमें कर्ज दो, सहायता दो, ताकि हम खाली कमरों वाले महंगे होटल बना सकें। हम जो भी करें, तुम्हे इससे क्या मतलब? तुम तो सिक्का डालो फौरन कटोरे में। फिजूल हमारा वक्त मत बरबाद करो। हमें और भी जगहों पर भीख मांगनी है।
बसस्टैण्ड का भिखारी हो गया है ये देश। उस मुस्तण्डे को मांगते देख, जो खिन्नता मेरे मन में घिर आती है, वहीं अखबार में रोज सहायता या कर्ज मांगने की खबरें पढ़कर भी घिर आनी चाहिए। कब थकेगा बसस्टैण्ड का ये भिखारी मांगते हुए। कब तक उसकी सही अपंग लड़की का अधिकार छीनता रहेगा। आजादी के कितने साल बीत गए। कब शर्म आएगी मुस्तण्डे को।
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