विस्तार
यह लेख 1985 में प्रकाशित उनकी किताब यथासम्भव से लिया गया है।जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा किया गया था।
पिछले दिनों मैंने एक भ्रष्टाचार किया। उसे भ्रष्टाचार कहना देश के परम भ्रष्टाचारियों की शान में गुस्ताखी होगी, मगर अपने कर्म के लिए इसके अतिरिक्त कोई शब्द नहीं रहा जिसका उपयोग करूं और कलंक में बरी हो जाऊं। मेरे एक मित्र ने दो शब्द सुझाये थे- समझदारी और व्यावहारिकता, जिन्हें मैं भ्रष्टाचार के एवज में उपयोग कर सकता था। उसका आग्रह यही था, मगर मैंने नहीं माना। उसका कहना था कि जो लोग भ्रष्टाचार करते हैं वे कहते हैं, यही समझदारी है, यही व्यावाहारिकता है, अत: तुम कोई अजूबा नहीं करोगे कि अपने कर्म को उक्त संज्ञाएं दोगे, मैंने इनकार कर दिया। मैंने कहा कि मुझे भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार कहने में कोई हर्ज नहीं लगता। मगर यह शब्द ऐसा सर्वव्यापी है, इसके सन्दर्भ में ऐसी बड़ी-बड़ी हरकतें सुनाई जाती हैं कि मुझे अपना काम बहुत छोटा लगता है। मेरा भ्रष्टाचार एक नन्हा सा भ्रष्टाचार है, भ्रष्टाचार की स्वर्ण दिशा में एक नम्र प्रयास है, एक मुन्नी सी क्रिया है, एक टुंइयां-सी हरकत है। मैंने शब्द बनाया मिनी भ्रष्टाचार अर्थात् एक पौधेनुमा, घुटनों से काफी ऊपर उठी फ्रॉकनुमा भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार की पहाड़ी ऊंचाइयों में बेबी का एक काम, महाकाव्यों की तुलना में एक हाइकू। मित्र ने कहा- छोटा हो या बड़ा, भ्रष्टाचार तो भ्रष्टाचार है। इससे मुझे कष्ट हुआ। एकेडेमिक बहसों में यदि कटु सत्य एकाएक कहीं से उद्घाटित हो जाए, तो बुद्धिवादियों तो इस प्रकार पीड़ा हो जाती है, नैतिक प्रश्नों को लेकर विशेष रुप से।
पढ़िए शरद जोशी के साथ हुआ क्या था?
हुआ यह कि दूर के शहर की एक संस्था ने मुझे गांधीवाद की वर्तमान युग में सार्थकता विषय पर आयोजित विचार गोष्ठी में भाषण देने के लिए बुलाया। आजकल सालभर के लिए देश में गांधी का सीजन चल रहा है, सो यह आयोजन स्वाभाविक था। जो गांधीवादी विचार गोदामों में पड़े वर्षों से सड़ रहे थे, वे मुरझाये व्यक्तियों की बैलगाड़ियों पर लदकर मण्डी में आ गये बड़ा शोरगुल रहा। भाषणों के इस विराट् नक्कारखानों में विनम्र तूती के रूप में मैंने भी पेंपे प्रस्तुत की और वन्दना के बेसुरों में एक सुर अपना मिला अहं को तुष्ट किया। संस्था ने लिखा था- हम ठहरने, खाने के बन्दोबस्त के अतिरिक्त आपको तीन फर्स्ट क्लास का किराया देंगे और आपको दो दिन रहना होगा। मैंने सोचा कि गांधी के नाम पर देश में कितने लोगों ने जीवन भर के लिए अपना ठहरने-खाने का बन्दोबस्त कर लिया है, यदि दो दिन के लिए मेरा भी हो जाए, तो क्या हर्ज है! मैंने चेहरे को गंभीर बनाया, विचारक की मुद्रा के उपयुक्त अपने शरीर को ढीला किया, आकाश की ओर डूबती आंखों से देखा। औपचारिकता, सौजन्य और आभार स्वीकार की सड़ी-गली शब्दावली को याद किया और यात्रा पर चल दिया।
स्टेशन पर आकर मैंने स्वयं से एक प्रश्न किया। हो सकता है इस प्रकार के प्रश्न उठाने में कमबख्त आत्मा का षड्यन्त्र रहा हो, जो बिना टिकट मेरे साथ चल रही थी। (कार्टून आयडिया-टिकटघर की खिड़की के सामने बड़े सन्यासी से टिकट बाबू कह रहे हैं- बाबा तुम्हारा दो टिकट लगेगा, एक तुम्हारे शरीर का, दूसरा आत्मा का) प्रश्न यह था कि मुझे थर्ड क्लास में बैठकर यात्रा करनी चाहिए अथवा फर्स्ट क्लास में?
इसी रूप-रंग का प्रश्न कभी स्वयं गांधी जी के मन में उठा था और गांधी जी के निजी ईश्वर ने उन्हें सलाह दी थी कि तुम्हे थर्ड क्लास में यात्रा करनी चाहिए, क्योंकि यह देश गरीब है, सही मायनों में थर्ड क्लास है और जरूरी है कि दुख झेल कर भी तुम थर्ड क्लास के यात्रियों के समीप रहो। इसी आकार-प्रकार का प्रश्न आजादी के बाद कांग्रेसी मन्त्रियों के मन में भी उठा था और मन्त्रियों के निजी सचिवों ने उन्हें सलाह दी थी कि आपको फर्स्ट क्लास की यात्रा करनी चाहिए, क्योंकि आपको भत्ता मिलता है, आप थर्ड क्लास के यात्रियों से ऊपर हैं और बर्थ पर आपका जन्म सिद्ध अधिकार रेल विभाग स्वीकार कर चुका है। मेरा प्रश्न इसी रंग-रूप और आकार-प्रकार का होकर भी भिन्न था। प्रश्न था कि क्या मुझे थर्ड क्लास की यात्रा करनी चाहिए, जबकि संस्था मुझे फर्स्ट क्लास का किराया देगी? आत्मा ने कहा कि यदि तू उनसे फर्स्ट क्लास का किराया ले रहा है, तो फर्स्ट क्लास में बैठकर जा और यदि तू थर्ड क्लास में बैठकर जा रहा है, तो तू उनसे भी थर्ड क्लास किराया ही ले।
मैंने कहा- आत्मा जी, आप शरीर में विराजती हैं। आपको मेरी जेब में, मेरे बटुए में निवास करना चाहिए था, तब आप मेरी पीड़ा समझ पातीं। मैं सरकारी नौकर नहीं जिसे टिकट नम्बर देना पड़ता है। मैं संस्था का सम्माननीय मेहमान हूं, जिसे गांधीवाद की वर्तमान परिस्थितियों में सार्थकता पर बोला है, भाषण देना है। मेरा लाभ इसी असत्य में है कि मैं फर्स्ट क्लास से आया-गया। सत्य से संस्था की बचत होगी, असत्य से मेरी। मैं अपनी बचत करूंगा, अपने लाभ को सोचूंगा। मैंने थर्ड क्लास का टिकट खरीदा और प्लेटफार्म पर पहुंच गया। कुछ समय बाद ट्रेन आयी। थर्ड क्लास में कठिन प्रवेश की समस्या थी, पर मैंने चुनौती को स्वीकारा और अपने पौरुष को प्रमाणित करता अन्दर धंस लिया। मैरी आरामप्रिय आत्मा की एक न चली, मगर जगह बनाकर मैं बैठ लिया जैसे-तैसे।
शरद जोशी ने पहुंचकर वहां भाषण दिया लेकिन उसके बाद क्या हुआ दिलचस्प था।
अन्त में वह स्वर्णिम घड़ी आयी, जब मुझे तीन फर्स्ट क्लास यानी डेढ़ सौ रुपये रखकर लिफाफा दिया गया। खर्च पचास, लभा हुआ सौ। गांधीवाद बुरा नहीं रहा। मैंने कहा चलेगा। लिफाफा जेब में रख लिया। इसी क्षण आत्मा को घूंसा-सा लगा। वह व्यंग्य में मेरा हाल ही में दिया भाषण दोहराने लगी।
कई दिन हो गये , मगर आत्मा अपनी शैली में कचोटती है। मित्र कहता है जो तुमने किया, बड़ी व्यावहारिकता है समझदारी है। मैं कहता हूं, चाहे यह मिनी भ्रष्टाचार हो पर है भ्रष्टाचार। मुझमें-उनमें क्या अन्तर है?
मुझे डर लगा कि इस तरह मैं एक फ्रॉड हो जाऊंगा। भ्रष्टाचार करूं और अपने को कोसकर सन्त बनने की चेष्टा करूं। बड़ा बंगला प्राप्त करने के लिए वर्षों प्रयत्न करूं और बंगला प्राप्त होने पर उसे एक कठघरा, एक कैदखाना घोषित कर स्वंय को पीड़ित बताऊं।
अन्त में शरद जोशी जी ने अपने लेख में लिखा कि इस विषय पर मैंने अपने मित्र से चर्चा की।
मित्र कहता है, देखो प्यारे, हर वक्त कोई नया टेंशन खड़ा कर परेशान होना तुम लेखकों की विशेषता होती है। तुम यहां से वहां बोलने गये, तुम्हारी क्या गांधी जी रिश्तेदारी है या डॉक्टर ने बताया था कि जाओ और भाषण दो। तुम गये, दो दिन नष्ट किये, विचार किया, विचारों को प्रकट किया और कार्यक्रम सफल बनाया। इस श्रम का मूल्य तुम्हें मिलना चाहिए। मिला है। संस्थावाले जानते हैं, तुम जानते हो। फर्स्ट क्लास का मार्ग व्यय और थर्ड क्लास के खर्च में जो अन्तर है, वही तुम्हारे श्रम का मूल्य है।