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हमारी तरफ से फिल्म को 3.5 स्टार
फिल्म का जैसा नाम है, वैसी ही इसकी कहानी है। लेखक नितेश तिवारी और डायरेक्टर अश्विन अय्यर तिवारी ने काफी सोच समझकर फिल्म का नाम 'बरेली की बर्फी' रखा। इसकी कहानी बिल्कुल बर्फी की तरह है, देखने में सख्त और सुंदर... और खाने में बिल्कुल मुलायम और सॉफ्ट। मुंह में डालते ही घुल जाने वाली मिठास आपको पूरी फिल्म के दौरान महसूस होगी। मतलब मिठास ऐसी है कि शुगर के मरीज भी पेट भर-भरके इस बर्फी को खा सकते हैं।
कहानी: बरेली शहर में सेमी ट्रेडिशनल परिवार की सेमी मॉडर्न लड़की बिट्टी मिश्रा को केंद्र में रखकर कहानी लिखी गई है। बिट्टी, जिसे ब्रेक डांस करना, सुट्टा मारना, देर रात तक बाहर रहने का शौक है, लेकिन छोटे शहर में ये सब करना पाप माना जाता है, इसलिए उसकी शादी नहीं होती है। परिवार की किचकिच से उकता कर वो घर छोड़ने का फैसला लेती है और स्टेशन पर जाकर एक किताब खरीदती है, ‘बरेली की बर्फी...’ और यहीं से शुरू होती है फिल्म की असली कहानी…
आयुष्मान खुराना को कीर्ति सेनन से प्यार हो जाता है। कीर्ति सेनन को हासिल करने के लिए आयुष्मान खुराना को पापड़ बेलने पड़ते हैं और इन्हीं पापड़ों को बेलने में फिल्म की कहानी आपके सामने पेश होती जाती है।
आयुष्मान खुराना: फिल्म बरेली की बर्फी का नाम, फिल्म जगत के नए एक्सपेरिमेंट के तौर पर याद किया जाएगा। आयुष्मान खुराना को बिल्कुल वही रोल दिया गया है जिसके लिए वो बने हैं। एक स्मार्ट लौंडा, जिसके इर्द-गिर्द माशूका के अलावा... कोई लड़की है ही नहीं। सुबह काम और शाम में दारू पीना, मौका पड़ने पर काम भर का गुस्सैल भी।
राजकुमार राव: ये फिल्म जहां कमजोर पड़ सकती थी वहां उसे मजबूती से संभालने का काम राजकुमार राव ने किया। प्रीतम विद्रोही के किरदार में राजकुमार ने शमा बांध दिया। कुछ सीन्स में प्रीतम एक सीधा-साधा लड़का बना है तो कुछ सीन्स में ठेठ गुंडे और अड़ियल लड़के के किरदार में दिखाई देता है। कहानी की डिमांड के हिसाब से राव खुद को इतनी तेज बदलते हैं कि आप देखते रह जाएंगे।
कीर्ति सेनन: वैसे तो कीर्ति सेनन ने अच्छी कोशिश की है लेकिन आयुष्मान खुराना और राजकुमार राव के साथ एंक्टिंग के तराजू पर तौलेंगे तो वह थोड़ी हल्की दिखाई देंगी। खुद को चुलबुला दिखाने की पूरी कोशिश की है, लेकिन वो उस लेवल पर नहीं जा पाईं जहां कहानी की डिमांड थी। डांस और डायलॉग्स में वो बिंदासपन मिसिंग था जिसके लिए उन्हें फिल्म में रखा गया था।
पंकज त्रिपाठी और सीमा भार्गव: थियेटर के इन दो दिग्गज अदाकारों का फिल्म में सिर्फ ऑर्नामेंटल इस्तेमाल किया गया है। न तो ज्यादा संवाद दिए गए और न ही ज्यादा मौका। फिर भी जितने सीन्स में पंकज त्रिपाठी दिखाई दिए, मुंह में मसाला दबाए पूरा माहौल बनाए दिखे।
कुल मिलाकर फिल्म की कहानी मजेदार, डायलॉग्स औसत से ज्यादा और संगीत सो-सो रहा। फिल्म की कमजोरियों को ढांकने का काम उसमें काम कर रहे एक्टर्स ने अपनी एक्टिंग्स से कर दिया।
फिल्म की कहानी को जितना मजेदार नितेश तिवारी ने लिखा था उसको पर्दे पर अश्वनि अय्यर तिवारी ने बखूबी उतारा है। इसलिए फिल्म सबके लिए फायदे का सौदा होने वाली है। फिल्म बनाने वाले के लिए भी और 150-200 रुपये खर्च करके देखने वाले के लिए भी है। अगर फ्री हैं और बोर हो रहे हैं तो परिवार के साथ देख आइए, मूड फ्रेश हो जाएगा…