विस्तार
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेटी इवांका ट्रंप भारत आ रही हैं। वे हैदराबाद आएंगी, जहां ग्लोबल आंत्रप्रेन्योरशिप समिट में हिस्सा लेंगी। इस दौरान इवांका की नजर किसी भिखारी पर न पड़े, इसलिए उन्हें शहर से हटाया जा रहा है। पुलिस खोज खोजकर भिखारियों को पुनर्वास केंद्रों में पहुंचा रही है और एलान किया गया है कि अगले दो महीने तक भीख मांगना जुर्म समझा जाएगा। अब तक करीब 400 भिखारियों को हटा दिया गया है। इसके अलावा शहर को दुल्हन की तरह सजाने की तैयारियां भी चल रही हैं। भिखारियों को शहर से हटाने की यह घटना दिलचस्प है और महान व्यंग्यकार शरद जोशी के व्यंग्य ''बसस्टैण्ड का भिखारी'' की ओर ध्यान खींचती हैं। उनकी रचना के कुछ अंश यहां भारतीय ज्ञानपीठ की 2009 में प्रकाशित 13वें संस्करण की किताब 'यथासंभव' से लिए गए हैं। महान व्यंग्यकार ने यह रचना संभवता 80 के दशक में लिखी थी। वर्षों पहले लिखा गया जोशी जी का यह व्यंग्य आज भी उतना ही प्रासंगिक और चोट करने वाला लगता है।
कुछ भिखारी ऐसे होते हैं जिनकी शकल देखकर दस पैसा देने की तबीयत नहीं करती। उन्हें देख लगता है कि ये भिखारी के अतिरिक्त कुछ हो सकते थे, पर हुए नहीं। न वे अपंग होते हैं न रोगी। न दुबले न दीनहीन। अनिवार्य कुचैला बाना धार वे अपने भिखारी होने की सूचना देते मांगते रहते हैं। वे आपके सामने हाथ फैलाते हैं। यह हाथ झापड़ का एवजी प्रतीत होता है। आप मुंह मोड़ लेते हैं, क्योंकि वह व्यक्ति भीख मांगनेवालों के करुण संसार का सदस्य नहीं लगता। बेशर्मी का एक स्थायी भाव उसके चेहरे पर रहता है। दारू पीने के लिए चन्दा मांगनेवालों की तरह।
एक ऐसे ही व्यक्ति को मैं अपने होटल की गैलरी से रोज देखता हूं। सामने बसस्टैण्ड है, जहां कुछ नियमित और अनियमित टूरिस्ट बसें मैंगलौर से पंजिम जाते हुए ठहर जाती हैं। होटल के नीचे के भाग में दो वेजीटेरियन और नॉनवेजीटेरियन भोजन के दो हॉल हैं। सस्ते काजू के पैकेट्स, नारियल पानी और पान का बीड़ा बेचनेवालों की दुकानें हैं। वह भिखारी अलस्सुबह से देर रात तक वहीं मंडराता रहता है। सुबह उठ कुनकुनी धूप से अपनी अधखुली आंखों का संबंध जोड़ने जब मैं गैलरी में आता हूं, उसे भीख मांगते देख मेरे मन में एक किस्म की खिन्नता भर जाती है। तब से सारा दिन मुझे वह बस की खिड़कियों और बाहर घूमते यात्रियों के सामने हाथ फैलाए दिखाई पड़ता है। वहीं एक भिखारिन भी है, जिसके हाथ पर मैं जरूर रोज कुछ चिल्लर रख देता हूं। उसके पैर घुटने के ऊपर कटे हुए हैं और एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए उसे विचित्र प्रकार से स्वयं को घसीटना पड़ता है। उसे घिसटना कहना शायद गलत होगा। वह कूल्हे के बल हलके-हलके उछलती हुई आगे बढ़ती है, तो अपने फैले हुए धूलिया पेटीकोट के कारण वह घिसटती सी लगती है।
मैं सोचता था कि यह किसी ऐसे पटिये पर क्यों नहीं बैठ जाती, जिसमें छोटे-छोटे पहिये लगे हों। यह हाथ के सहारे पटिये को आगे ठेल तेजी से आगे बढ़ सकती है। पर समस्या यह थी कि विकसित टेक्नोलॉजी भीख मांगने की प्रक्रिया में कैसे सहायता पहुंचा सकती है, इस पर मैं उसे नहीं समझा सकता था। वह शायद मैंगलौरी झुकाव की कन्नड़ बोलनेवाली होगी। मैंने तो उसे हमेशा चुप ही देखा। वह हाथ उठा भर देती, तो भाषा की तमाम आवश्यकता गैर-जरूरी हो जाती। उसे भीख रह-रहकर मिल जाती। वह बसों के पास नहीं जाती। वह घिसटती-उछलती पहुंच भी जाये, तो बस में बैठे आदमी की नजर उस पर नहीं पड़ सकती थी। फिर एक दिन मैंने गौर किया कि पूरे बसस्टैण्ड का धरातल ऊबड़खाबड़ है और भीख मांगने के ऐसे कार्यक्षेत्र में विकसित टेक्नोलॉजी के चातुर्य का प्रदर्शन करने की कोई आवश्यकता नहीं। यों भी इस छोटी-सी बात के लिए दक्षिण भारत की भिखारिन को बाहरी टेक्निकल जानकार की जरूरत नहीं।
वह भिखारी बड़ा मुस्तण्डा था। लगातार भीख मांगते-मांगते गगरदन में झुकाव आने के अतिरिक्त उसे शरीर में कोई विकृति नहीं थी। जब भी बस आती, वह उछलता हुआ-सा उसकी ओर बढ़ता और लगातार शक्लों का मुआयना कर भीख मांगता रहता। उस दिन पता नहीं कैसे, अखबार में भारत को 'प्रदत्त' आर्थिक सहायता की खुशखबर शैली में लिखित समाचार को पढ़ते हुए मेरा ध्यान बसस्टैण्ड के उस भिखारी को ओर चला गया। वह उसी उत्साह और कर्तव्यनिष्ठा से एक नयी आयी बस के सामने भीख मांग रहा था, जिस उत्साह से आजादी के इतने वर्ष बीतने के बाद हमारा देश आर्थिक सहायता मांगा करता है। आर्थिक सहायता मांगने, लेने, उस संबंध में कोशिश करने, मंसूबे बांधने, तिकड़म जमाने की खबरें रोज ही पढ़ने को मिलती हैं। लगा रहता है भारत चौबीस घण्टे किसी पराये देश की जेबें ढीली करवाने में। हमें दो। पहले दिया था, फिर थोड़ा और दो। ज्यादा दो, कम दो, मगर दो। दान दो। दान न हो सके, तो कर्ज दो। बिन ब्याज का दो, चाहे ब्याज का दो, पर हमें दो। दो इसलिए कि हम भारत हैं। भारत को दिया जाना चाहिए। अगर आप अमरीकी हैं तो दो, रूसी हैं तो दो, अरब के हैं तो दो, फ्रांस के हैं तो दो। आप जो भी हैं, हमें दो। बसस्टैण्ड का भिखारी, बस किस दिशा में आ रही है, यह नहीं देखता। उससे इसे मतलब भी नहीं। बस है, तो भीख उसका हक है, कर्म है, नीति है। वह मांगेगा।
और बसें हैं कि कम्बख्त लगातार एक के बाद आती रहती हैं। भिखारी है कि उसे भीख मांगने से फुरसत नहीं कि एक क्षण को सुस्ता ले। आजादी के फौरन बाद से लगातार मांग रहा है। -बसस्टैण्ड का भिखारी- मेरा देश।