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उस जमाने में हम रेडियो पाकिस्तान भी सुनते थे

Updated Wed, 22 Jun 2016 08:13 PM IST
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कल आपने पढ़ा किस्सा रेडियो और क्रिकेट का। बिहार के एक सुदूर गांव से हमें लिख भेजा था चन्द्रशेखर आज़ाद साहब ने। कहते हैं पढ़ने-लिखने का खूब शौक है। रेडियो खूब सुनता था। क्रिकेट का तो पूरा खाता-बही तैयार करता था।
इंडिया अगर मैच हार जाती और हम बहुत दुःखी हो जाते तो हमारे पिता जी हमसे कहते थे, क्यों सुनते हो क्म्मेंट्री जब मरने लगते हो। बहुत दिन से लिखाई भी छूटा हुआ था। हमने इनसे कहा कुछ लिख भेजिए। अपने दिनों के रेडियो और क्रिकेट के कुछ किस्से। इसी में इन्होंने कुछ लिख भेजा था। पढ़िए उसी का दूसरा हिस्सा।

पहला हिस्सा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें..

रेडियो के एकदम चौकस दिनों को जब याद करेंगे तो रेडियो सीलोन जो बाद मे श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन बन गया को कैसे भूल सकते हैं। खासकर सप्ताह मे एक दिन बजने वाले बिनाका गीतमाला जिसमें अमीन सायनी की मदमस्त आवाज़ मे बहनों और भाईयो बीनाका गीतमाला मे आपका स्वागत है,कौन भूल सकता है भला। बिनाका गीतमाला ये तय करती थी कि कौन सा गाना इस सप्ताह लोकप्रियता के किस पायदान पर है।
old-tv मुझे याद है एक ज़माने मे राजेश खन्ना की फिल्म सौतन का गाना 'शायद मेरी शादी का ख्याल दिल मे आया है इसीलिये मम्मी ने मेरी तुझे चाय पे बुलाया है' लम्बे समय तक लोकप्रियता की चोटी पर रहा था। इसमें गाने किम ख़ूबसूरती का हाथ तो था ही साथ ही बिनाका गीतमाला ने भी इसे खूब चढ़ाया था। आज तो प्रसारण के हर मीडियम पर बड़े-बड़े घरानों का कब्जा हो गया है। टीवी के दर्शकों की हालत उन किसानों जैसी हो गयी है जो हर वर्ष बीज खरीदने को मजबूर हैं। पहले हमारे रेडियो की हत्या की गई फिर टेलीविज़न चैनलों पर कब्जा किया गया।

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उस ज़माने मे हम रेडियो पकिस्तान के माध्यम से भी समाचार और क्रिकेट कमेंट्री सुन पाते थे। अफगानिस्तान रेडियो पर भी फिल्मी गाने। वेल्ले वाय्स ऑफ अमेरिका जैसे कई रेडियो स्टेशन हमे विश्व मे चल रही राजनीतिक, समाजिक और सांस्कृतिक घटनाओं से रूबरू कराते थे। लेकिन रेडियो की असामयिक मौत ने हमे एक कमरे मे एक इडियट बॉक्स के सामने बिठा दिया है। कहने मात्र को विश्व एक ग्राम हो गया है लेकिन विश्व के तमाम साधनों से गांव के लोग पिछड़े हुए हैं। और उनपर बड़ी शक्तियों का कब्जा है।
old-radio-table-book-glasses वैसे रेडियो की खटिया खड़ी करने के लिये हम भी कम जिम्मेवार नही हैं। 1991 मे आई नई इकोनोमिक पॉलिसी ने तमाम अच्छाइयों को अलविदा कह दिया। एक ब्लाइंड रेस या रेट रेस को अपनाने मे जो जल्दबाजी दिखाई है वह आत्मघाती साबित हुई। और पूरी दुनिया बाजार में तब्दील हो गई है।
जहां हर चीज़ की कीमत तय है। आदमीयत और इंसानियत की भी। जब रेडियो था ये कुछ हद तक बची थी। टीवी ने सब कुछ उघाड़ कर रख दिया। आगे बढ़ने की हमारी जल्दबाजी पता नही कहां ले जाएगी। शायद रेडियो और हमारी एक ही नियति है।

आपके पास भी हो कुछ ऐसा रोचक किस्सा तो हमें लिख भेजिए। इस पते पर shivendu.shekhar@auw.co.in    अपने नाम और एक फोटो के साथ। मजेदार लगा तो हम जरूर जगह देंगे।


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